SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुंदकुंद - .सा./१/१०८, १०३ (२०) शिलालेखों में फद्धिप्राप्ति की चर्चा अवश्य है। परन्तु किसी में भी उनके विदेहगमन का उल्लेख नहीं है, जबकि एक शिला में 'पूज्यपाद के लिये ऐसा लेख पाया जाता है । (दे० पूज्यपाद ) । स्वयं कुन्दकुन्द ने भी इस विषय में कोई चर्चा नहीं की है। ८. कलास कहलाते वे १. प. प्रा / मो / प्रशस्ति पृ. ३७१ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य... कलिकालसर्वज्ञेन विरचितेन पद्प्राभृतग्रन्थे। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीपद्ममन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित पट्प्राभूत प्रथमे = ९. गुरु सम्बन्धी विचार मा० पा० / ६२ बारस अंगवियाणां चउदस पृवं गविउ लवित्थरण 1 माभिगमगुरू भययओं जयक-११ ग १४ पूर्वके ज्ञाता गमक गुरु भगवान् भद्रबाहु जयवत वर्ता । पं.का./टी. श्रीकुमारनन्दि सिद्धान्तदेव शिष्ये... श्रीकुडकुन्दाचार्यदेवे :.... शिवकुमारमहाराजा विसंक्षेपरुचिशिष्यप्रभोधनार्थ विरचितं वास्तिकायः--]] - कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव के (शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव के द्वारा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचि शिष्यों के प्रबोधनार्थ विरचित पञ्चास्तिकाय... नन्दिसंपकी पावती 1 = श्रीमूतसंथेऽवनि नन्दिसं वस्तस्मिन्मसात्कारणोऽतिरम्य । तत्राभनव पूर्वपदशिवेदी श्रीमाघनन्दी नरदेववन्द्यः ॥ पदे तदीये मुनिमान्यवृत्ती जिनादिचन्द्रः समभूवन्द्र तोऽभवनामधामा श्री पद्मनन्दी मुनिचक्रवर्ती ॥ श्री मूलधर्मे नन्दिसंघ तथा उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदधारी श्री मामनन्दि मुनि हुए जो कि नर सुर द्वारा वन्य हैं । उनके पदपर मुनि मान्य श्री जिनचन्द्र हुए और उनके पश्चात् पंच नामधारी मुनिचक्रवर्ती श्रीपद्मनन्दि हुए। प्रा/मो/ प्रशस्ति / २०१ श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य नाम प विराजितेन... श्री जिनचन्द्रसूरिभट्टारक पट्टाभरणेन.... श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य जिनके पाँच नाम प्रसिद्ध है तथा जो श्री जिनचन्द्रसूरि भट्टारकके पदपर आसीन हुए थे। • नोट :- आचार्य परम्परा से आगत ज्ञान का श्रेय होने से श्रुत केबली भद्रबाहु प्र० को गमकगुरु कहना न्याय है। इनके साक्षात गुरु (दीक्षा गुरु जिनचन्द्र ही थे । १०७ कुमारनन्दि के साथ भी इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। १०४ । (जै० सा० / २ / पृष्ठ) (हो सकता है कि ये इनके शिक्षा गुरु रहे हों। । १०. रचनाएँ इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार / श्ल० न०२- एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् गुरुपरिपाटया ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुण्डपुरे ।। १६० ।। श्रीपद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थ परिकर्म कर्ता पटखण्डाद्यखण्डस्य | १६१ - इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकारके ज्ञानको प्राप्त करके गुरु परिपाटीसे आये हुए सिद्धान्तको जानकर श्रीपद्मनन्दि मुनिने कोण्टकुण्ड पुर ग्राम में १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामकी षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डोंकी व्याख्या की । इसके अतिरिक्त ८४ पाहुड जिनमें से १२ उपलब्ध हैं; समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय और दर्शन पाहड़ आदि से समवेत अष्टपाहुड़ और भी बारस अणुवेक्खा, तथा साधु जनों के नित्य क्रियाकलाप में प्रसिद्ध सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, व्विाण, पंचगुरु और तिरथयर भक्ति । 1 १२८ Jain Education International ११. काल विचार संकेत :- प्रमाण जै./२/पृष्ठ; तो०/२/१०७-१११ । प्रमाण सधाता विद्वान् काल विक्र. ११३ | के.मी. पाठक ११५ डा० चक्रवर्ती ११२ पं. जुगलकिशोर ११८ २२२ श. ३ अन्त. श. २ मुख्तार ११२ नाथूराम प्रेमी ११६ डा० उपाध्ये नन्दि सघ पट्टावती २०५ ४१ शीर्षक १८४ २३६ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १२५ पं० कैलाश चन्द १८४-८ २३० For Private & Personal Use Only हेतु ७ शिवकुमार शक ४५० के शिव मृगेश - ई० श०१ के पल्लव वंशी शिवस्कन्द ७ कुंभ - असुरकुमार ( भवनवासी) – दे० असुर । कुंभक कुत्स् W खण्डमलि बी० नि० ६३३-६६३(० १६३)४ श्वे० उत्पत्ति- शक १३६ (बि. २७१ ४ श्वे० उत्पत्ति (वि० १३६); भद्रबाहु ८ प्र० परम्परा गुरु षट्खण्ड टीका कुन्दकीर्ति । षट्खण्ड रचना - वी. नि. ६५० । कषायपाहुड कर्ता यतिवृषभ वि. श. ३ प्र० चरण । शिष्य उमास्वामी - वि० ३०० 1 दे० कोश खण्ड १ में परिशिष्ट ३ ./२१/२ निरुणद्धि स्थिरीकृत्य घसनं नाभिकुम्भसोऽयं कुम्भः परिकीर्तित। पूरक पवनको स्थिर करके नाभि कमल से पढेको भरे तेसे रोकें (भा) नाभिसे अन्य :) जगह चलने न दें सो कुम्भक कहा है। ★ कुम्भक प्राणायाम सम्बन्धी विषय २० प्राणायाम | कुंभकटक द्वीप - भरतक्षेत्रका एक देश-३० मनुष्य ४ । कुंभकर्ण - प. प. पु. / ७ / श्लोक - रावणका छोटा भाई था ( २२२ ) । रावणकी मृत्यु पश्चाद विरक्त हो दीक्षा धारण कर (७८ / ०१) अन्तमें मोक्ष प्राप्त की ( ८० / १२६ ) । कुंज - ज. प / प्र./ १४० A, N, up H. L, वर्तमान काराकोरम देश ही पुराणों का कुंज या मुंजवान है। इसीका वैदिक नाम यूजवान था आज भी उसके अनुसार यूजताग कहते हैं। तुर्की भाषा के अनुसार इसका अर्थ पर्वत है। कुअवधिज्ञान दे० अवधिज्ञान । कुगुरु — कुगुरुकी विनयका निषेध व कारणादि- दे० विनय / ४ । कुट्टक - घ ५/प्र. २७ Indetrminte equation कुडई-प. १४/५.६.४२/४२/२ जिगरपरायणाणं निओसिसीओ कुट्टा नाम जिनगृह, घर और अपनी जो भी मनायो जाती हैं. उन्हे कहते हैं। = कुडद्याश्रित-त्सर्गका अतिचार-२०१ कुणिक - म. पु. / ७४ ४१४ यह मगधका राजा था। राजा श्रेणिकका पिता था। राजा श्रेणिकके समयानुसार इसका समय - ई० पू० ५२५५४६ माना जा सकता है । कुणी वान - भरत क्षेत्र मध्य आर्य खण्डका एक देश-३० मनुष्य ४ ॥ कुत्सा - दे० जुगुप्सा । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy