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________________ कुंदकुंद कुंदकुंद लेखोंमें यह नाम अकलंकदेवके पश्चात् आया है, इसलिये ये कोई एक स्वतंत्र महान् आचार्य हुए हैं, जिनका कुन्दकुन्दके साथ कोई सम्बन्ध नहीं (जै सा,/२/१०१)। ५. श्वेताम्बरोंके साथ वाद (म.आ./प्र./११./जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले) भगवस्कुन्दकुदाचार्यका गिरनार पर्वतपर श्वेताम्बराचार्योंके साथ बड़ा वाद हुआ था, उस समय पाषाण निर्मित सरस्वतीको मूतिसे आपने यह कहला दिया था कि दिगम्बर धर्म प्राचीन है।-यथा-"पद्मनन्दिगुरुर्जातो बलास्कारगणाग्रणी । पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती।-गुर्वावली। कुन्दकुन्दगणी पैनोज्जयन्तगिरिमस्तके । सोऽवतावादिता माही पाषाणघटिता कलौ।" (आचार्य शुभचन्द्र कृत पाण्डवपुराण)-ऐसे अनेक प्रमाणों से उनकी उद्भट विद्वत्ता सिद्ध है। नोट-यद्यपि सूत्र पाहूड़ से इस बात की पुष्टि होती है और दर्शन सारमें भी दिगम्बर श्वेताम्बर भेद वि.सं.१३६ में मताया गया है (दे० श्वेताम्बर); परन्तु ६० कैलाशचन्द जीके अनुसार यह विवाद पचनन्दि नामके किसी भट्टारकके साथ हुआ था कुन्दकुन्दके साथ नहीं। (जै.सा./२/११०,११२) ६. ऋद्धिधारी थे अंगुल ऊपर चलते थे। ष.प्रा./मो/प्रशस्ति/पृ.३७६ नामपञ्चकविराजितेन चतुरगुलाकाशगमनदिना पूर्व विदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितसीमन्धरजिनेन...। = नाम पंचक विराजित (श्री कुन्दकुन्दाचार्य) ने चतुरंगुल आकाशगमन ऋद्धि द्वारा विदेह क्षेत्रकी पुण्डरीकिणी नगरमें स्थित श्री सीमन्धर प्रभुकी वन्दना की थी। मू.आ./प्र.१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले-भद्रबाहु चरित्रके अनुसार राजा चन्द्रगुप्तके सोलह स्वप्नोंका फल कथन करते हुए भद्रबाहु आचार्य कहते हैं कि पंचम कालमें चारण ऋद्धि आदिक ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होती, और इस लिए भगवान् कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धि होनेके सम्बन्धमें शंका उत्पन्न हो सकती है। जिसका समाधान यों समझना कि चारण ऋद्धिके निषेधका वह सामान्य कथन है। पंचम कालमें ऋद्धिप्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है यही उस का अर्थ समझना चाहिए । पंचम कालके प्रारम्भमें ऋद्धिका अभाव नहीं है परन्तु आगे उसका अभाव है ऐसा समझना चाहिए। यह कथन प्रायिक व अपवाद रूप है । इस सम्बन्धमें हमारा कोई आग्रह नहीं है । श्रवणबेलगोलामें अनेकों शिलालेख प्राप्त हैं जिनपर आपकी चारण ऋद्धि तथा चार अंगुल पृथिवीसे ऊपर चलना सिद्ध है। यथाजैन शिलालेख संग्रह/शिलालेख नं०/पृष्ठ नं०४०/६४./तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः। श्रीकोण्डकुन्दादिमुनीश्वरस्य सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ॥६॥ ४२/६६ श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।४।-श्री चन्द्रगुप्त मुनिराजके प्रसिद्ध वंशमें पद्मनन्दि संज्ञावाले श्री कुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं। जिनको सत्संयमके प्रसादसे चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४। श्री पवनन्दि है अनवद्य नाम जिनका तथा कुन्दकुन्द है अपर नाम जिनका ऐसे आचार्यको चारित्रके प्रभावसे चारण ऋद्धि उत्पन्न हो गयी थी।४२॥ २. शिलालेख नं. ६२.६४,६६,६७,२५४,२६१ पृ. २६३-२६६ कुन्दकुन्दा चार्य वायु द्वारा गमन कर सकते थे। उपरोक्त सभी लेखोंसे यही घोषित होता है। ३. चन्द्रगिरि शिलालेख/नं.५४/पृ.१०२ कुन्दपुष्पकी प्रभा धरनेवाले, जिसकी कीर्ति के द्वारा दिशाएं विभूषित हुई हैं, जो चारणों के चारण शनिधारी महामुनियोंके सुन्दर हस्तकमलका भ्रमर था और जिस पवित्रात्माने भरत क्षेत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा करी है वह विभु कुन्दकुन्द इस पृथिवीपर किससे वन्द्य नहीं है। ४. जैन शिलालेख संग्रह/पृ.११७-१६६ रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्यापि सव्यजयितु यतीशः। रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरङ्गुलं सः॥ यतीश्वर श्री कुन्दकुन्ददेव रजस्थानको और भूमितलको छोडकर चार बगुल ऊंचे आकाशमें चलते थे। उसके द्वारा मैं यो समझता हूँ कि वह अन्दरमें और माहरमें रजसे अत्यन्त अस्पृष्टपनेको व्यक्त करता हुआ।" ५. मद्रास व मैसुर प्रान्त प्राचीन स्मारक पृ.३१७-३९८ (६६) लेख नं. ३५। आचार्यकी वंशावलीमें-( श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमिसे चार अंगुल ऊपर चलते थे।) हल्ली नं. २१ ग्राम हेग्गरेमें एक मन्दिरके पाषाणपर लेख-“स्वस्ति श्री वनमानस्य शासने । श्रीकुन्दकुन्दनामाभूत चतुरङ्गुलधारणे।"-श्री वर्तमान स्वामीके शासनमें प्रसिद्ध श्री कुन्दकुन्दाचार्य भूमिसे चार ७. विदेहक्षेत्र गमन १.द.सा /मू./४३. जइ पउमणं दिणाहो सीमंधरसामिदिव्यणाणेण। ण विवोहेइ तो समणा कहं मुमग पयाणंति ॥४३॥ - विदेहक्षेत्रस्थ श्री सीमन्धर स्वामीके समवशरणमें जाकर श्री पद्मनन्दि नाथने जो दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वह बोध न दे तो, मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते। २.पं. का /ता.वृ /मंगलाचरण/१ अथ श्रीकुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यैः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्व विदेहं गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमल विनिर्गतदिव्यवाणीश्रवणावधारितपदार्थाच्छदात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा पुनरप्यागतैः श्रीकुण्डकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयै...विरचिते पश्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे ...तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते। अब श्री कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य, जो कि प्रसिद्ध कथाके अनुसार पूर्वविवेहमें जाकर वीतरागसर्वज्ञ तीर्थकर परमदेव श्रीमन्दर स्वामी के दर्शन करके, उनके मुखकमलसे विनिर्गत दिव्य वाणीके श्रवण द्वारा अवधारित पदार्थसे शुद्धात्म तत्त्वके सारको ग्रहण करके आये थे, तथा पद्मनन्दि आदि हैं दूसरे नाम भी जिनके ऐसे कुन्दकुन्द आचार्यदेव द्वारा विरचित पंचास्तिकाय प्राभृतशास्त्रका तात्पर्य व्याख्यान करते हैं। ३. ष,प्रा./मो./प्रशस्ति/पृ.३७६ श्री पद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्य.. नामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्चिना पूर्व विदेहपुण्डरीकणीनगरवंदित सीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तच्छ्र तज्ञानसंबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रभट्टारकपट्टाभरणभृतेन कलिकालसर्वज्ञन विरचिते षट् प्राभृतग्रन्थे...| श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य देव जिनके कि पाँच नाम थे, चारण ऋद्धि द्वारा पृथिवीसे चार अंगुल आकाशमें गमनकरते पूर्व विदेहकी पुण्डरीकणी नगर में गये थे। तहाँ सीमन्धर भगवान जिनका कि अपर नाम स्वयंप्रभ भी है, उनकी वन्दना करके आये थे। बहाँसे आकर उन्होंने भारतवर्ष के भव्य जीवों को सम्बोधित किया था। वे श्री जिनचन्द्र भट्टारकके पट्टपर आसीन हुए थे, तथा कलिकाल सर्वज्ञके रूपमें प्रसिद्ध थे। उनके द्वारा विरचित षट्पाभृतग्रन्थमें। ४.मू.आ./प्र./१० जिनदास पार्श्वनाथ फुडकले = चन्द्र गुप्तके स्वप्नोंका फलादेश बताते हुए आचार्य भद्रबाहुने (भद्रबाहु चरित्रमें ) कहा है कि पंचम कालमें देव और विद्याधर भी नहीं आयेंगे, अतः शंका होती है कि भगवान् कुन्दकुन्दका विदेह क्षेत्र में जाना असम्भव है। इसके समाधानमें भी ऋद्धिके समाधानवव ही कहा जा सक्ता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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