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________________ काल ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम १५. कषाय मार्गणामें एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि व्याघातका एक इस प्रकार चारोंके ११ भंग यथायोग्य रूपसे लागू करना । विशेष इतना कि वृद्धिगत गुणस्थान लेश्याको भी वृद्धिगत और हीयमान गुणस्थानोंके साथ लेश्याको भी हीयमान रूप परिवर्तन कराना चाहिए। परन्तु यह सब केवल शुभ लेश्याओं के साथ लागू होता है, क्योंकि अशुभ लेश्याओंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । ष. खं./७/२,२/सू. १२६/१६० जहण्णेण एयसमओ ॥१२॥ ध.७/२,२,११६/१६०/१० कोधस्स बाधादेण एगसमओ णस्थि, माधादिदे वि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिर्ह कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा । णवरि एदेसि तिण्हं कसायाणं वाधादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा । कमसे कम एक समयतक जीव क्रोध कषायी आदि रहता है ( योगमार्गणावत् यहाँ भी योग परिवर्तनके पाँच, गुणस्थान परिवर्तनके चार मरणका एक तथा व्याघातका एक इस प्रकार चारोंके.११ भंग यथायोग्यरूपसे लागू करना। विशेष इतना कि क्रोधके व्याघातसे एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघातको प्राप्त होनेपर भी पुन' क्रोधको उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार शेष तीन कषायोके भो एक समयको प्ररूपणा करना चाहिए ( विशेष इतना है कि इन तीन कषायोके व्याघातसे भी एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। क पा. १/१३६८/चूर्ण सू /३८५ दोसो केवचिरं कालादो होदि । जहण्णुका स्सेण अंतोमुहुत्तं । क पा. १/६३६९-३८५/१० कुदो। मुदे वाधादिदे वि कोहमाणाणं अंतो मुहुत्तं मोतूण एग-दोसमयादीणमणुवलं भादो। जीवट्ठाणे एगसमओ काल म्मि परूविदो, सोकधमेदेण सह ण विरुज्झदे; ण; तस्स अण्णाइरियउवएसत्तादो। कोहमाणाणमेगसमयमुदओ होदूण विदियसमयकिण्ण फिट्टदे। ण; साहावियादो । प्रश्न-दोष कितने कालतक रहता है । उत्तर-जधन्य और उत्कृष्ट रूपसे दोष अन्तर्मुहूर्स कालतक रहता है। प्रश्न-जघन्य और उत्कृष्टरूपसे भी दोष अन्तर्मुहूर्त कालतक ही क्यो रहता है। उत्तर-क्यो कि जीवके मर जानेपर या बी'चमें किसी प्रकारकी रुकावट के आ जानेपर भी क्रोध और मानका काल अन्तर्मुहूर्त छोडकर एक समय, दो समन, आदि रूप नही पाया जाता है। अर्थात् किसी भी अवस्थामें दोष अन्तर्मुहूर्त से कम समयतक नहीं रह सकता। प्रश्न-जीवस्थानमै कालानुयोगद्वारका वर्णन करते समय क्रोधादिकका काल एक समय भी कहा है, अत. वह कथन इस कथनके साथ विरोधको क्यो प्राप्त नही होता है। उत्तरनहीं, क्योंकि जीवस्थानमे धादिकका काल जो एक समय कहा है वह अन्य आचार्य के उपदेशानुसार कहा है। प्रश्न-क्रोध और मानका उदय एक समयतक रहकर दूसरे समयमे नष्ट क्यों नही हो जाता । उत्तर -- नहीं, क्योकि अन्तर्मुहूर्ततक रहना उसका स्वभाव है। ध.४/१०५,२६७/४६७/३ एगो मिच्छादिही असंजदसम्मादिही वा वड्ढमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धार एगो समओ अस्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो। विदिएसमए संजमासंजमेण सह सकलेस्सं गदो। एसा लेस्सापरावत्ती (३)। अधवा बडूढमाणतेउलेस्सिओ संजटासंजदो तेउलेस्साए खरण पम्मलेस्सिओ जादो। एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिल, विदियसमए अप्पमत्तो जादो । एसा गुण परावत्ती। अधवा संजदासंजदो होयमाणसुकलेस्सिओ मुक्कलेस्सद्धारखएण पम्मलेस्सिओ जादो । विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिठी सासणसम्मादिठी मिच्छादिट्ठी वा जादो । एसा गुणपरावती (४)। ध. ४/२,५,३०७/४७५/१ ( एको) अप्पमत्तो होयमाणसुक्कलेरिसगो मुक्कालेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो। विदियसमये मदो देवतं गदो (३)। -१. वर्धमान पद्मलेश्यावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्याके काल में एक समय अवशेष रहनेपर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। द्वितीय समयमें संयमासयमके साथ ही शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ। यह लेश्या परिवर्तन सम्बन्धी एक समयकी प्ररूपणा हुई । अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई संयतासंयत तेजोलेश्याके काल के क्षय हो जानेसे पद्मलेश्यावाला हो गया। एक समय पद्मलेश्याके साथ संयमासंग्रम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समयमें अप्रमत्तसंयत हो गया। वह गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई। अथवा, होयमान शुक्ललेश्यावाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्याके काल के पूरे हो जानेपर पद्मलेश्यावाला हो गया। द्वितीय समयमें वह पद्मलेश्यावाला ही है, किन्तु असयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादन सम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समयको प्ररूपणा हुई (४)। २. हीयमान शुक्ललेश्यावाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्याके ही कालके साथ प्रमत्तसंयत हो गया, पुन' दूसरे समयमे मरा और देवत्वको प्राप्त हुआ। (यह मरणकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा हुई।) नोट-इस प्रकार यथायोग्य रूपसे सर्वत्र लागू कर लेना। १७. लेश्या मार्गणागे एक जीवापेक्षा अन्तर्मुहूर्त जघ. न्यकाल भी है १६. लेश्या मागणामें एक जीवापेक्षा एक समय जघन्यकाल प्राप्ति विधि ध.४/१.५.२६६/४६६-४७५ का भावार्थ (योग मार्गणावत् यहाँ भी लेश्या परिवर्तनके पाँच, गुणस्थान परिवर्तनके चार, मरण का एक और यह काल अशुभलेश्याकी अपेक्षा है क्योंकिध.४/१,५,२८४/४५६/१२ एत्थ ( अमुहलेस्साए) जोमस्सेव एगसमओ जहण्णकालो किण्ण लम्भदे। ण, जोगकसायाणं व लेस्साए तिस्सा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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