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________________ काल ९८ - परावती गुणापत्तीए मरणेण बाधादेण वा एक्समयकालत्सासंभवा । ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लम्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विवासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदिय समर तेस्संतरगमणाभावादो च न गुणपराबसीर, अदिलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा । ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा । ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा । प्रश्न- यहाँपर ( तीनों अशुभ लेश्याओंके प्रकरण में) योगपरावर्तन के समान एक समय रूप जघन्यकाल क्यों नहीं पाया जाता है " उत्तर नहीं। क्योंकि, योग और कषायोंके समान लेश्यामेंश्याका परिवर्तन, अथवा गुणस्थानका परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघातसे एक समयकालका पाया जाना असम्भव है। इसका कारण यह कि न तो लेश्या परिवर्तनके द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाशका अभाव है। तथा इसी प्रकार से अन्य गुणस्थानको ये हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य लेश्याओंमें जानेका भो अभाव है । न गुणस्थान परिवर्तनकी अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या परिणत हुए जीवके द्वितीय समय में अन्य गुणस्थानके गमनका अभाव है। न व्याघातकी अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, वर्तमान लेश्या के व्याघातका अभाव है। और न मरणकी अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, विवक्षित देश्याते परिपत हुए जीवके द्वितीय समय में मरणका प्रभाव है ( . ४ / १.२.२६६/ ४६५/६ ) १८. या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम घ. ४/१.१.२०४/२६६/३ किन्लेस्साए परिणदस्य जीवस्स अतरमेव काउलेस्सापरिणमणसत्तीए असंभवा । = घ. ८/३.२.१८/३२२/७ कलेस्साए उिदो पम्म- ते काहीसा परिणमीय पच्छा किनलेस्सापसारण परिणमवगमादो कृष्ण लेश्या परिणत जीवके तदनन्तर ही कापोत लेश्यारूप परिणमन शक्तिका होना असम्भव है। शुक्सलेश्या क्रमा पद्मपीठ कापोत और नीच वेश्याओं में पश्चिमन करके पीछे कृष्ण लेश्या पर्याय से परिणमन स्वीकार किया गया है। १९. बेदक सवस्वका ६६ सागर उत्कृष्टकाल प्राप्ति विधि घ. ७/२.२.१४२/९६४/११ वेक्रस रस्समा पडिवम्णजनसमसम्म सह समुदिर-ओ-पास वेदसम्म पडिवज्जिय Jain Education International ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ अविणट्ठतिणाहि तोमुहतमच्छिय एवे तो गुणकोडर अमस्सेववजय पुणो बीस सागरोन भए दे कोहाउस मस्सेधजिव मामीसागरोवमी देवेन वज्जिदृण पुणो पुव्वकोडाउएस मणुस्सेसुववज्जिय खइयं पट्ठविय चवीस सागरोवमादिवि देवेनजित पुणेो पुण्यको उपसू मस्सेववज्जिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होदूण अबंधगतं गदस्स चदुहि पुत्रकोडीहि सादिरेयछावट्ठिसागरोवमाण मुवलं - भादो | = देव अथवा नारकीके प्राप्त हुए उपशम सम्यक्त्वके साथ मति, श्रुत व अवधि ज्ञानको उत्पन्न करके, वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर, अनिष्ट तीनों शानोंके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह इस अन्तर्मुहूर्त से हीन पूर्व कोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर, पुन श्रीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर पुन भाईस सागरोपम आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, पुन पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योमें उत्पन्न होकर क्षायिक सम्यक्त्वका प्रारम्भ करके, चौबीस सागरोमम आयुनाले देवों में उत्पन्न होकर पुन पूर्वकोटि आयुष मनुष्यों में उत्पन्न होकर जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर केवलज्ञानी होकर अन्धक अवस्थाको प्राप्त होनेपर चार पूर्वकोटियोसे अधिक छयासठ सागरोपम पाये जाते हैं। ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ १. सारणी में प्रयुक्त संकेतोंका परिचय अप० अव ० जर्स० उत० उप० तिर्य० लध्यपर्याप्त अवसर्पिणी असंख्यात उत्सर्पिणी उपशम तिर्यञ्च प० पर्याप्त पल्य / असं० पत्यका असंख्यातवाँ भाग पृथिवी पृ० मनु० मनुष्य मिथ्या० मिथ्यात्व सम्य० सम्यक्त्व सा० सागर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only को० पू० को पूर्व पृ० [को०] पूर्व क्रोड १,२,३,४ वह वह गुणस्थान २५ ज० २८ प्रकृतियोंकी सत्ता वाला कोई मिथ्यादृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य $$$*****...** वर्ष अन्तर्मु० अन्तर्मुहूर्त कोको, सा, कोड़ाकोडी सागर ज० उ० जघन्य उत्कृष्ट www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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