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________________ काल ९६ ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम संयत (इन पाँचों) गुणस्थानवी कोई एक जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। मनोयोगके कालमें एक-एक समय अवशिष्ट रहनेपर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहाँपर एक समय मात्र मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया। द्वितीय समयमें वही जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किन्तु मनोयोगीसे वचनयोगी हो गया अथवा काययोगी हो गया । इस प्रकार योग परिवर्तनके साथ पाँच प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा की गयी। (योग परिवर्तन किये बिना गुणस्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है-दे० अन्तर २). २.गुणस्थान परिवर्तनके चारभंगअब गुणस्थान परिवर्तन द्वारा एक समयकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। उसके वचनयोग अथवा काययोगका काल क्षीण होनेपर मनोयोग आ गया और मनोयोगके साथ एक समयमें मिध्यादृष्टि गोचर हुआ। पश्चात द्वितीय समयमें भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किन्तु सम्यग्मिध्यात्वको अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको अथवा संयमासंयमको अथवा अप्रमत्त संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार गुणस्थान परिवर्तनके द्वारा चार प्रकारसे एक समयको प्ररूपणा की गयी। (एक विवक्षित गुणस्थानसे अविवक्षित चार गुणस्थानोंमें जानेसे चार भंग)। ३. मरणका एक भंगकोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचन योगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था पुनः योग सम्बन्धी कालके क्षय हो जानेपर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और दूसरे समयमें मरा । सो यदि वह तिर्यचोंमें या मनुष्योमें उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा औदारिक मिश्र काययोगी हो गया। अथवा यदि देव और नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा वै क्रियक मिश्र काययोगी हो गया। इस प्रकार मरणसे प्राप्त एक भंग हुआ। ४. व्याघातका एक भंग-अब व्याघातसे लब्ध होनेवाले एक भंगकी प्ररूपणा करते हैं-कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव बचनयोगसे अथवा काययोगसे विद्यमान था। सो उन वचन अथवा काययोगके क्षय हो जानेपर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोगके साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और दूसरे समय वह व्याघातको प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया, इस प्रकारसे एक समय लब्ध हुआ। भंगोंको यथायोग्य रूपसे लागू करना- इस विषयमें उपयुक्त गाथा इस प्रकार है-'गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगोंमें अर्थात तीन योगोंके होनेपर हैं। किन्तु सयोग केवलीके पिछले दो अर्थात मरण और व्याघात तथा गुणस्थान परिवर्तन नहीं होते १३६।' इस विवक्षित गुणस्थानमें विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होते हैं या नहीं, ऐसा जान करके तथा गुणस्थानोंको प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थानको जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चिन्तवन करके असंयत सम्यगदृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संयतोंको चार प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकारसे अप्रमत्त संयतोंकी भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष मात यह है कि उनके व्याघातके बिना तीन प्रकारसे एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए। क्योंकि अप्रमाद और व्याघात इन दोनोंका सहानवस्था लक्षण विरोध है। (अतः चारों उपशामकों में भी अप्रमत्सब ही तीन प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए तथा क्षपकों में मरण रहित केवल दो प्रकारसे ही।) ५. भंगोंका संक्षेप-(अविवक्षित मिथ्यादृष्टि योग परिवर्तन कर एक समयतक उस योगके साथ रहकर अविवक्षित सम्यग्मिथ्यात्वी, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंगत, या अप्रमत्त संयत हो गया। विवक्षित सासादन, या सभ्यग्मिध्यात्व, या असंयत सम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या प्रमत्तसंयत विवक्षित योग एक समय अवशिष्ट रहनेपर अविवक्षित भिध्यादृष्टि होकर योग परिवर्तन कर गया। विवक्षित स्थानवर्ती योगपरिवर्तन कर एक समय रहा, पीछे मरण या व्याघात पूर्वक योग परिवर्तन कर गया।) १२. योग मार्गणामें एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि ध.७/२,२.६८/१५२/२ अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण ___ तत्थ अंतोमुहुत्ताबट्ठाण पडि विरोहाभावादो। ध. ७/२,२,१०४/१५३/७ बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएस उपज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालयमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिगदपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तूणबावीसवाससहस्साणि ताव ओरा लयकायजोगुवलं भादो। ध.७/२,२,१०७/१५४/६ मणजोगादो बचिजोगादो वा वेविय-आहारकायजोगं गंतूण एटबुक्कस्सं अंतोमुत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोग गदस्स ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेतुक्कस्सकालुबलभादो। = १. ( मनोयोगी तथा वचनमोगी) अविवक्षित योगसे विवक्षित योगको प्राप्त होकर उत्कर्ष से वहाँ अन्तर्मुहर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है। २ (अधिक से अधिक बाईस हजार वर्ष तक जीव औदारिक काययोगी रहता है। (ष.ख./ ७/२.२/सू. १०५/१५३ ) क्योंकि, बाईस हजार वर्षकी आयु वाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य कालसे औदारिकमिश्र कालको बिताकर पर्याप्तिको प्राप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कम माईस हजार वर्ष तक औदारिक काययोग पाया जाता है। ३. मनोयोग अथवा बचनयोगसे वैक्रियक या आहारककाययोगको प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तमहंत काल तक रह कर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहर्त मात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योगसे औदारिकमिश्रयोगको प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके औदारिकमिश्रका अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है। न करके तथा गुणस्या रसा चिन्तवना र प्रकार से एक सप १३. वेद मार्गणामें स्त्रीवेदियोंकी उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि ध./४,१,६६/१३०-१३१/३०० सोहम्मे सत्तगुणं तिगुणं जाव दू समुक्क कप्पो त्ति । सेसेमु भवे विगुणं जाव दु आरणच्चुदो कप्पो ।१३०॥ पणगादी दोही जुदा सत्तावीसा ति पल्लदेवीणं । तत्तो सत्त तरिय जाव दुजारणच्चुओ कप्पो ।१३१। = सौधर्म में सात बार-७४५ पत्य । ईशानसे महाशुक्र तक तीन तीन बार -३ (७+६+११+१३+ १५+१+१+२१+२३) =२१+ २७+३३+३६+४५+५१+ ५७+६३+६९-४०५ पक्य । शतारसे अच्युत तक दो दो बार -२ ( २५+२७+३४+४१+४८+५५) =५०+५४+६+२+१६ +११०-४६० पल्य। अन्तरालोंके स्त्री भवोंकी स्थिति-1 कुल काल १०० पल्य+1 १४. वेद मार्गणामें पुरुषवेदियोंकी उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि ध.६/४,१,६६/१३२/३०० पुरिसेसु सदपुधत्तं असुरकुमारेसु होदि तिगुणेण । तिगुणे वगेवज्जे सग्गठिदी छग्गुणं होदि ।१३२॥ - असुरकुमारमें ३ बार ३४१३ सागर । नव ग्रं वेयकों में तीन बार ३ (२४+२७+३०) = ७२+१+६०-२४३ सागर । आठ करप युगलों अर्थात् १६ स्वर्गोंमें छ' छ. बार ०६ (२+७ +१०+ १४+१६+१+२०+२२) १२+४+६+४+६६ +१००+१२०+१३२ ६५४ सागर। अन्तरालोंके भवोंकी कुल स्थिति=1 । कुल काल-१०० सागर +'। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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