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________________ ९५ काल क्त्वके काल में एक समय अवशिष्ट रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ ।... एकसमय मात्र सासादन गुणस्थानके साथ दिखाई दिया। ( क्योंकि जितना काल उपशमका शेष रहे उतना ही सासादनका काल है ), दूसरे समय में मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । २. एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । पुन' सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयत सहित सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ।... अथवा संक्लेशको प्राप्त होनेवाला वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हुआ और महाँ पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अभिनष्ट सस्तेशी हुआ ही मिथ्यात्वको चला गया। इस तरह दो प्रकारो से सम्यग मिथ्यात्व के जघन्यकाल की प्ररूपणा समाप्त हुई । ३. एक अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एकसमय जीवन शेष रहनेपर अपूर्वकरण उपशामक हुआ, एक समय दिखा, और द्वितीय समयमें मरणको प्राप्त हुआ । तथा उत्तम जातिका विमानवासी देव हो गया। नोट-इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों में भी यथायोग्य रूपसे लागू कर लेना चाहिए। ८. देवगतिमें मिथ्यात्वके उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम तो ४/१५२२२/४६२६ मिलादिट्ठो जहि महंत करेदि पत्तिदोषमस्स असं सेज्जविभागन्धधियवेसागरोवमाणि करेदि । सोहमे उपजमाणमिष्यादिद्वीर्ण एवम्हारो हिमाल बने सीए अभावा । .... • अंतोद्वाज्जसागरोपमे उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिनासिरस मिस्तगमणे संभवाभावो भवणादिसहस्सारत देवेसु मिच्छाइट्टिस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवण्णा हाणुववसीदो - मिध्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे तो पत्योपमके असंख्यात भागसे अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योकि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होनेवाले मिध्यादृष्टि जीवोंके इस उत्कुष्ट स्थिति से अधिक आयु की स्थिति स्थापन करनेकी शक्तिका अभाव है।''अन्तर्मुहुर्त कम बाई सागरोपमकी स्थितिवाले देवीने उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्मन्दष्टि देवके मिध्यात्वमें जानेकी सम्भावनाका अभाव है।... अन्यथा भवनवासियोंसे लेकर सहसार तक्के देनोंमें मिध्यादृष्टि जीमो के दो प्रकारकी आयु स्थितिकी प्ररूपणा हो नहीं सकती थी । 1 ९. इन्द्रिय मार्गणामै उत्कृष्ट भ्रमणकाळ प्राप्ति विधि ध.१/४,१,६६/१२६-१२७/२६५ न इनकी टीकाका भावार्थ - "सौधम्मे माहिदेही होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्युद पुडीगं होदि पंचगुणं ॥ १२६ ॥ पढमपुढवीए चदुरोपण ( पण ) सेसासु होंति पृथ्वी च च देवेश भया बाबीसं ति सदधतं ३१२०० - प्रथम पृथिवीमें ४ बार = १x४ = ४ सागर; २ से ७वीं पृथिवीमें पाँच-पाँच बार - ५५३, ५४७,५×१०,५१७, ५x२२, ५३३ - १५+३५ ५०+ ८५ + ११० + १६५ ४६० सागर; सौधर्म व माहेन्द्र युगलोंमें चार-चार बार=४×२, ४×७–८+२८३६ सागर: ब्रह्मसे अच्युत तकके स्वर्गों में पाँच-पाँच बार = ५×१० + ५× १४ + ५×१६ +५×१८+ ५×२० + ५× २२=५०+७०+८०+१०+१००+११००५०० सागर। इन सर्व के ७१ अन्तरालोंमें पंचेन्द्रिय भवोंकी कुल स्थिति पूर्व पृथक्त्व है। अत चेन्द्रियोंमें यह सब मिलकर कुल परिभ्रमण काल पूर्वकोटि पृथक्स्प अधिक १००० सागर प्रमाण है । १२६ । अन्य प्रकार प्रथम पृथिवी चार बार उपरोक्त प्रकार ४ सागर; २०७ पृथिवीमें पाँच-पाँच बार होनेसे उपरोक्त प्रकार ४६० सागर और सौधर्म से अच्युत युगल पर्यन्त चारचार बार उपरोक्तवत ४३६ सागर अन्तरालोंके ७१ भवकी कुल स्थिति पूर्वको इस प्रकार कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्व अधिक ६०० सागर भी है । १२७ Jain Education International ५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम १०. काय मार्गणा में नसोंकी उत्कृष्ट भ्रमण प्राप्ति विधि घ. १/४.१.६६/ १२८-९२१/२२८६ इनकी टीकाका भावार्थ-सोहम्मे माहिंदे पढमढवी होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्द पुढवीणं हो |२८| विगु उरिम एगज्जे दोणि सहस्साणि भवे कोडियुधत्तेण अहियाणि | १२ | "कल्पों में सौधर्म माहेन्द्र युगलों में चार-चार बार = (४x२) + (४X७) = ८ + २८ = ३६ सागर, ब्रह्मसे अच्युत तकके युगलोमें आठ-आठ बार - ८×१०+ ८×१४+८x१६ + ८x१८ + ८x२० + ८x२२=८० + ११२+१२८+ १४४ + १६० + १७६ = ८०० सागर । उपरिम रहित ८ प्रैवेयकोंमें दो-दो बार =२x२१२ (२३ + २४ + २५+२६+२७+२८+२६+३०=४२४ सागर | प्रथम पृथिवी में चार बार = ४४१ = ४ सागर । २ ७ पृथिवियों में आठ-आठ बार ८३ + ८X७ + ८×१० + ८x१७+२२ + ३३ २४+६+०+१६+१०६ + २६४७३६ सागर अन्तरालके जस भवोंकी कुल स्थिति-पूर्व कोडि पृथक्त्व । कुल काल - २००० सागर पूर्वकोटि धनल ११. योग मार्गणामै एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि .४/१.२.१६२/४०२/१० "गुणद्वाणाणि अस्सिन एगसमयपरूनणा कीरदे । एत्थ ताव जोगपरावत्ति गुण परावत्ति मरण - वाघादेहि मिच्छतगुगड्डाणस्स एगसमओ पदे १. को सासणो सम्मानियारिडी असं जदसम्मादिट्ठी संजा संजदो पमतसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो । एगसमओ मणजोगाए अस्थिति मिच्छतं गदो एमसमयं मगजोगेण सह मिच्छतं दि । विदियसमए मिच्छादिट्ठो चेव, किन्तु वचिजोगी कायजोगी व जादो। एवं जोगपरिवत्तीए पंचविहा एगसमयपरूवणा कदा । ( ५ भंग ) २. गुणपरावन्त्तीए एगसमओ वुञ्चदे तं जहा एक्को सिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तस्स वचिजोगद्धा कायजो गद्धासु खीणासु मणजोगो आगदो । मणजोगेण सह एगसमयं मिदिमदियसमर नि मगजोगी चैव तु सम्माि च्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजम वा अपमत्तभावेण संजम वा पडिवण्णो । एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा । (४ भंग ) । ३. एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो तेखिएन मगजोगो आग्दो एगसमयं मगोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठ । विदियसमए मदो । जदि तिरिक्खेसु वा मणुसेसु वा उपयो तो कम्मामजोगी मा जादो एवं मरणे लस ए भंगे। ४. वाघादेण एषको मिच्छादिट्ठी बचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तैसि वचि कायजोगाणं खएण तस्स मणजोगो आगदो । एगसमयं मनजोगेण मिच्छदि निदियसमए बाचादिदो कामजोगी जादो लदो एगसमओ एत्थ उज्जती गाहा-गुणजोग परावती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि । जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लद्गुण का जोगे | ३६ | नोट - एदम्हि गुणहाणे ट्ठिदजीवा इमं गुणठाणं परिवति पविति ति नादून गुणपछिमा वि इमं गुण ठाणं गच्छति, ण गच्छति त्ति चितिय असंजदसम्मादिटि-संजदासंजद- पमन्तसंजदाणं च विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा । एवमप्पमत्तसंजदाणं । वरि वाघादेण विना तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा । मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानको आश्रय करके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है - उनमेंसे पहले योग परिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारोंके द्वारा मिथ्यात्व गुणस्थानका एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है- योगपरिवर्तन पाँच भंग- सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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