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________________ अनित्थं अनिवृत्तिकरण ध. १/१,१,३३/गा १४०/२४८ ण वि इदिय-करणजुदा अवग्गहादीहि गाया अत्थे। णेब य इ दिय-सोक्वा अणिदियाण तणाण-सुहा ॥१४०॥ जिनके इन्द्रियाँ नही पायी जाती उन्हे अनीन्द्रिय जीव कहते है। प्ररन-वे कौन है । उत्तर-शरीररहित सिद्ध अनि न्द्रिय है। कहा भी है-वे सिद्ध जीव इन्द्रियोके व्यापारसे युक्त नहीं है और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञानके द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते है। उनके इन्द्रिय सुरख भी नहीं है, क्योकि उनका अनन्त ज्ञान व अनन्त सुख अनिन्द्रिय है । (गो जो /मू /१७४) । अनित्थं—दे सस्थान। अनित्य-दे नित्य । अनित्य अनुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा । अनित्य नय-दे नय I/४, सद्भावानित्यपर्यायाथिक नय-दे नय __ IV/४) अनित्यसमा जाति-दे नित्यसमा। अनित्य स्वभाव निर्देश-दे स्वभाव १ । अनिबद्ध मंगल-दे मगल । अनियति नय-दे नियति । अनिरुद्ध-(म पु /५५/१८) कृष्ण का पोता तथा प्रद्युम्नका पुत्र था। अनिवर्तक-भाविकालीन बोसवें तीर्थकर । अपरनाम कदर्प । (विशेष-दे तीर्थकर १) अनिद्रव-दे निह्नव । अनिवत्तिकरण-जोबोकी परिणाम विशुद्धिमे तरतमताका नाम गुणस्थान है। बहते-बहते जब साधक निर्विकल्प समाधिमें प्रवेश करनेके अभिमुख होता है तो उसकी सज्ञा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है । इस अवस्थाको प्राप्त सभी जीवोके परिणाम तरतमता रहित सदृश होते है। अनिवृत्तिकरण रूप परिगामोका सामान्य परिचय 'करण' में दिया गया है। यहाँ केवल अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका प्रकरण है। १. अनिवृत्तिकरण गुणस्थानका लक्षण ५ स./प्रा१/२० २१ एक्कामिन कालसमये सठाणादोहि जह णिवट्टति। ण णि बट्टति तह च्चिय परिणामे हिं मिहो जम्हा ॥२०॥ होति अणियट्टिणो ते पडिसमय जेसिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहि णिद्दड्ढकमवणा ॥२१॥ -इस गुणस्थानके अन्तमहूत प्रमित कानमें से विवक्षित किसी एक समयमै अवस्थित जोव सत संस्थान (शरीरका आकार) आदि की अपेक्षा जिस प्रकार निवृत्ति या भेदको प्राप्त होते है, उस प्रकार परिणामोको अपेक्षा परस्पर निवृत्ति को प्राप्त नहीं होते है, अतएव वे अनिवृत्ति करण कहलाते है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीवोंके प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अतिविमल ध्यानरूप अग्निको शिलाओसे कर्मरूप वनको सर्वथा जला डालते है। (ध १/१,१.१७/१८६/गा ११६-१२०) (गो जो /मू । ५६-५७/१४६) (प स सं/११३८,४०)। रा वा /8/१,२०५६०/१४ अनिवृत्तिपरिणामवशात स्थूल भावेनोपशमक क्षपकश्चानिवृत्तिबादरमाम्परायौ ॥२०॥ तत्र उपशमनीया क्षपणीयाश्च प्रकृतय उत्तरत्र वस्यन्ते। =अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोकी विशुद्विसे कर्म प्रकृतियोको रथल रूपसे उपशम या क्षय करनेवाला उपशामक क्षपक अनिवृत्तिकरण होता है। ध १/१.१.१७/१८३/११ समानसमयावथितजीवपरिणामाना निर्भदेन वृत्ति निवृत्ति । अथवा निवृत्तिावृत्ति , न विद्यते निवृत्तिर्येषा तेऽनिवृत्तप । साम्पराया कषाया, बादरा स्थूला , बादराश्च ते साम्परायाश्च बादरसाम्पराया । अनिवृत्तयश्च ते बादरसाम्पगयाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्पराया । तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्मेषा स यताना तेऽनिवृत्तियादरसाम्परायचित्रशुद्वर यता । तेषु सन्ति उपशमका क्षपकाश्च । ते सर्वे एको गुणोऽनिवृत्तिरिति । - समान समयवर्ती जीवों के परिणामोको भेदरहित वृत्तिको निवृत्ति कहते है। अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात व्यावृत्ति नहीं होती है उन्हे अनिवृत्ति कहते है। साम्पराय शब्द का अर्थ क्षाय है और बादर स्थूल को कहते है। इसलिए स्थूल कषायोको बादरसाम्पराय कहते है और अनिवृत्तिरूप बादरसाम्परायको अनिवृत्तिबादरसाम्पराय कहते है। उन अनिवृत्तिबादरसाम्परायरूप परिणामो मे जिन स यतोकी विशुद्धि प्रविष्ट हो गयी है, उन्हे अनिवृत्तिबादरसाम्परायप्रविष्टशुद्धि सयत कहते है। ऐसे स यतों में उपशामक व क्षपक दोनों प्रकारके जीव होते है और उन सब सयतोका मिल कर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है। गो, जी /जी प्र/५७/१५०/३ न विद्यते निवृत्ति विशुद्धिपरिणामभेदो येषां ते अनिवृत्तय इति निरुक्तयाश्रयणात । ते सर्वेऽपि अनिवृत्तिकरणा जीवा तत्कालप्रथमसमयादि कृत्वा प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिवृद्धया वर्धमानेन होनाधिकभावरहितेन विशुद्धिपरिणामेन प्रवर्तमाना' सन्ति यत' तत प्रथमसमयवतिजीव विशुद्धिपरिणामेभ्यो द्वितीयसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामा अनन्तगुणा भवन्ति । एवं पूर्व पूर्वसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामेभ्यो जोवानामुत्तरोत्तरस्मयवतिजीवऋद्धिपरिणामा अनन्तानन्तगुणितक्रमेण वर्धमाना भूस्वा गच्छन्ति । = जात नाही विद्यमान है निवृत्ति कहिये बिशुद्धि, परिणामनि विषे भेद जिनके ते अनिवृत्तिकरण है ऐसी निरुक्ति जानना। जिन जीवनिको अनिवृत्ति करण माडे पहला दूसरा आदि समान समय भये हो हि, तिनि त्रिकालवर्ती अनेक जीवनि के परिणाम समान होहि । जैसे-अध करण अपूर्व वरण ब्धैि समान ह ते थे तैसें हहॉ नाहीं। बहुरि अनिवृत्तिकरण कालका प्रथम समयको आदि देकर समयसमय प्रति वर्तमान जे सर्व जीवते हीन अधिक पनाते रहित समान विशुद्ध परिणाम धरै है। तहाँ समय समय प्रति जे विशुद्ध परिणाम अनन्तगुण अनन्तगुणै उपज है, तहाँ प्रथम समय विबै जे विशुद्ध परिणाम है तिनितै द्वितीय समय 'विष बिशुद्ध परिणाम अनन्तगुण हो है। ऐसे पूर्व-पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिणामनितै जीवनिवे उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनुक्रमक र ब ता हुआ प्रवर्ते है। द्रसं/टी /१३/३५ दृष्टश्रुतानुभ्रतभोगाकाड यादिरूपसमस्त संकल्पविक्लपरहित निजनिश्चल परमात्मत्वै काग्रध्यानयरिण मेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्पर पृथक्कतु नायान्ति ते वर्ण सम्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपशमिक्लपक्सज्ञा द्वितीयक्पायाय कविशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपण समर्था नब मगुणस्थान वतिनो भवन्ति। - देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगोकी बाछादि रूप सम्पूर्ण सकरूप तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूपके एकाग्र ध्यानके परिणामसे जिन जीवोके एक समयमे परस्पर अन्तर नहीं होता वे वर्ण तथा स स्थान के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशामक व धपक सज्ञा के बारक, अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय क्षाय आदि इक्कोस प्रकारकी चारित्र मोहनीय कमकी प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण मे समर्थ नवम गुणस्थानवी जीव है। २. सम्यक्त्व व चारित्र दोनोकी अपेक्षा औपशमिक व क्षायिक दोनो भायोको सम्भावना ध १/१,१.१७/१८५/८ काश्चित्प्रकृतीरुपामयति, काश्चिदुपरिष्टा दुपशमयिष्यतोति औपशमिकोऽय गुण । काश्चित् प्रकृती क्षपर्यात काश्चिदुपरि ष्टात आपयिष्यतीति थायिकश्च । सम्यक्त्वापेक्षया चारित्रमोहलपकस्य थायिक एवं गुणस्तत्रान्यस्यास भवात् । उपशमकस्यौपशमिक शायिकश्चोभयोरपि तत्राविरोधात । = इस गुणस्थानमे जीव मोहको क्तिनी ही प्रकृतियोका उपशमन करता है और कितनी ही प्रकृतियोका आगे उपशमन करेगा इस अपेक्षा यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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