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________________ अनस्तमी व्रत अनिद्रिय भोजन नहीं करता है, परन्तु दूसरोको भोजन कराता है, कोई भोजन कर रहा हो तो उसकी अनुमति देता है, यह अतिचार मनसे, वचनसे और शरीरसे करना। भूग्वसे पीडित होनेपर स्वय मन में आहारकी अभिलाषा करना, मेरेको कौन पारणा देगा, किस घर में मेरा पारणा होगा, ऐसो चिन्ता करना, ये अनशन तपके अतिचार है। ७. अनशन शक्तिके अनुसार करना चाहिए अन-ध//६ द्रव्य क्षेत्र बल कालं भावं वीर्य समीक्ष्य च । स्वास्थ्याय वर्ततां सर्व विद्धशुद्धाशनै सुधौ ॥६५॥ विचार पूर्वक आचरण करनेवाले साधुओको आरोग्य और आत्मस्वरूपमे अवस्थान रखनेके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छह बातोका अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशनके द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए। ८. अनशनके कारण व प्रयोजन स सि /8/१६/४३८ दृष्टफलानपेक्ष सयमसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमायाप्त्यर्थमनशनम् । = दृष्ट फल मन्त्रसाधना आदिकी अपेक्षा किये बिना सयमक' सिद्धि, रागका उच्छेद, काँका विनाश ध्यान और आगमकी प्राप्तिके लिए अनशन तप किया जाता है । (रा वा/8/ १६.१/६१८/१६) (चा सा/१३४/४) घ.१३/५,४,२६/५५/३ किमट्ठमेसो कीरदे। पाणिदियसजमट्ठ , भुत्तीए उहयासजम अविणाभावद सणादो-प्रश्न-यह अनेषण किस लिए किया जाता है। उत्तर-यह प्राणिस यम और इन्द्रिय सयमकी सिद्धिके लिए किया जाता है, क्योकि भोजनके साथ दोनो प्रकारके असयमका अविनाभाव देखा जाता है। ६. अनशनमें ऐहलौकिक फलको इच्छा नही होनी चाहिए रा.वा /९/१६,१/६१८/१६ यत्किचिद् दृष्टफल मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनसनमित्युच्यते । मन्त्र साधनादि कुछ भी दृष्ट फलकी अपेक्षाके बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। (चा.सा./१३४/४)। रा.वा/९/१६,१६१६१६/२४ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति (8/2) इत्यत सम्यक ग्रहणमनुवर्तते, तेन दृष्टफननिवृत्ति कृता भवति सर्बत्रा ='सभ्यग्योगनिग्रहो गुप्ति ' इस सूत्रमें-से सम्यक् शब्दको अनुवृत्ति होती है। इसी 'सम्यक' पदकी अनुवृत्ति आनेसे समंत्र (अनशन तपमें भी) दृष्टफल निरपेक्षताका होना तपोमें अनिवार्य है। इसलिए सभी तपों. में ऐहलौकिक फलकी कामना नहीं होनी चाहिए। * अधिक से अधिक उपवास करनेकी सीमा-दे. प्रोष धोपवास। अनस्तमी व्रत-तविधान संग्रह १ १६ कुल समय-जीवन पर्यन्त । ___किशनसिंह क्रिया कोष' विधि-प्रतिदिन सूर्यके दो घडी पश्चात तथा सूर्योदयसे दो घड़ी पहले भोजन करे। बोचके शेष समयों में चारो प्रकारके अपहारका त्याग । मन्त्र-नमस्कारमन्त्रकी त्रिकाल जाप। अनाकांक्ष क्रिया-दे क्रिया ३/२ । अनाकार-दे. आकार। अनाचार- अतिचार/पु सि उ "व्रत का सर्वथा भग होना अतिचार है।" दे अतिचार/सामायिक पाठ "विषयों में अत्यन्त आसक्ति सो अनाचार अनादि-१. ज्ञानमे आ जानेके कारण अनादि सादि नही हो जाता -दे अनत २,२ भूत भविष्यत कालका प्रमाण निश्चित कर देनेपर अनादि भी सादि बन जायेगा।-दे काल ३ । अनादिनय-सादि अनादि पर्यायार्थिक नय--दे नय IV/४ । अनादि बंध-सादि अनादि बन्धी-प्रकृतियॉ-दे प्रकृति बध २ । अनादत कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे व्युत्सर्ग १। अनादेय-दे. आदेय। अनाभोगकृतातिचार-दे. अतिचार । अनाभोग क्रिया-दे क्रिया ३/२ । अनाभोगनिक्षेपाधिकरण-दे. अधिकरण । अनायतन-दे आयतन। अनारम्भ- सा /त प्र/२३६ नि क्रियनिजशुद्वात्मद्रव्ये स्थित्वा मनोवचनकायव्यापार निवृत्तिरनारम्भ । -निष्क्रिय जो निज शुद्धात्म द्रव्य, उसमें स्थित होनेके कारण मन वचन कायके व्यापारसे निवृत्त हो जाना अनारम्भ है। अनालब्ध-कायोत्सर्गका एक अतिचार दे व्युत्सर्ग। अनालोच्य वचन-दे असत्य । अनावर्त-१ एक यक्ष-दे. यक्ष; २. उत्तर जम्बूद्वीपका रक्षक व्यन्तर देव-दे व्यन्तर ४। अनाहारक-ष ख १/१/१/सू. १७७/४१०/१ अणाहारा चदुसु हाणेसु बिग्गहगइसमावण्णाणं केवलोण वा समुग्धाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥१७७ = विग्रहगतिको प्राप्त जीवोके, मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घातगत केवली, इन चार गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीव और अयोगिकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते है ॥१७७॥ (ध १/१,१५/१५३/२, (गो जी.//६६६/११११) ।। स सि /२/२६/१८६ उपपादक्षेत्र प्रति अज्या गती आहारक । इतरेषु त्रिषु समयेषु अनाहारक = जब यह जीव उपपाट क्षेत्र के प्रति ऋजुगतिमे रहता है तब आहारक होता है। बाकी के तीन समयोंमें अनाहारक होता है। रा.वा/७/११/६०४'१६ उपभोगशरीरप्रायोग्य पुद्गल ग्रहणमाहार,तद्विपरीतोऽनाहार । तत्राहार शरीरनामोदयात विग्रहगतिनामोदयाभावाच्च भवति । अनाहार' शरीरनामत्रयोदयाभावात् विग्रहगतिनामोदयाच्च भवति । - उपभोग्य शरीरके योग्य पुद्गलोका ग्रहण आहार है, उससे विपरीत अनाहार है। शरीर नामकर्म के उदय और विग्रहगति नामके उदयाभावसे आहार होता है। तीनो शरीर नामकर्मो के उदयाभाव तथा निग्रहगति नामके उदय मे अनाहार होता है। अनिःसत-मतिज्ञान का एक भेद - दे. मतिज्ञान ४ । अनिःसरणात्मक तैजस शरीर-दे तैजस १ । अनिदित-किन्नर नामा व्यन्तर जाति का एक भेद-दे किन्नर । अनिदिता-म पु /६२/ श्लोक 'मगध देशके राजा श्रीषेण की पत्नी थी (४०) । आहार दानकी अनुमोदना करनेसे भोग भूमिका बन्ध किया (३४८ ३५०) अन्तमे पुत्रोके पारस्परिक कलहमे दुखी हो विष पुष्प सूंघकर मर गयी (३५६)। यह शान्तिनाथ भगवान् के चक्रायुध नामा प्रथम गणधरका पूर्वका चौदहवाँ भव है।-दे चक्रायुध । अनिद्रिय-१. अनिन्द्रियक लक्षण मनके अर्थमें-दे मन । २. अनिन्द्रियक लक्षण इन्द्रिय रहितके अर्थमे : ध १/१,१,३३/२४८/८ न सन्तीन्द्रियाणि येषा तेऽनिन्द्रिया । के ते । अशरीरा सिद्धा । उक्त च १. अनाचार व अतिचार में अन्तर–दे अतिचार । अनात्मभूत कारण-दे कारण 1/१। अनात्मभूत लक्षण-दे लक्षण । बनादर-जम्बूद्वीपका अधिपति व्यन्तर देव-दे. व्यन्तर ४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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