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________________ अनिष्ट गुणस्थान औपशमिक है। और कितनी ही प्रकृतियोका क्षय करता है तथा कितनी ही प्रकृतियोंका आगे क्षय करेगा. इस दृष्टि से क्षायिक भी है । सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा चारित्रमोहका क्षय करनेवालेके यह गुणस्थान क्षायिक भावरूप ही है, क्योकि क्षपक श्रेणी में दूसरा भाव सम्भव ही नहीं है। तथा चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवाले के यह गुणस्थान औपशमिक और क्षायिक दोनो भावरूप है, क्यो कि उपशम श्रेणीकी अपेक्षा वहॉपर दोनो भाव सम्भव है। ३. इस गुणस्थानमें औपशमिक व क्षायिक ही भाव क्यों घ/१.७,८/२०४/४ होदु णाम उवसतकसायस्स ओवसमिओ भावो उबसमिदासेसकसायत्तादो । ण सेसाण, तत्थ असेसमोहस्सुवसमाभावा। ण अणियट्टिबादरसापराय-सुहमसापराइयाण उपसमिदथोक्कसायजणिदुवसमपरिणामाण औवसमियभावस्स अस्थित्ताविरोहा । ध ५/१,७,६/२०५/१० बादर-सुहमसापराइयाण पि ख वियमोहेयदेसाण कम्मख यजणिदभात्रोक्लंभा । प्रश्न- समस्त कषायो और नोक्षायो के उपशमन करनेसे उपशान्त कषाय छद्मस्थ जोबके औपशामिक भाव भले रहा आवे, किन्तु अपूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवी जीवो के औपशमिक भाव नही माना जा सकता है, क्योकि, इन गुणस्थानोंमे समस्त मोहनोय कर्म के उपशमनका अभाव है। उत्तर- नही, क्योकि कुछ कषायोके उपशमन करनेसे उत्पन्न हुआ है उपशम परिणाम जिनके, ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय स यतके उपशम भावका अस्तित्व मानने मे काई विरोध नही है। मोहनीय कर्म के एक देश के क्षपण करनेवाले बादरसाम्पराय और सूक्ष्मसाम्पराय क्षपको के भी कमक्षय जनित भाव पाया जाता है। (ध.७/२,१,४६/ १३/१) ४. अन्य सम्बन्धित विषय * इस गणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी जीवसमास, मार्गणास्थानादि २० प्ररूपणाएँ-दे सत् । * इस गुणस्थान सम्बन्धी सर, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएं -दे बह वह नाम । * इस गुणस्थानमे कर्म प्रकृतियोका बन्ध, उदय व सत्त्व - दे वह वह नाम । * इस गुणस्थानमे कषाय, योग व सज्ञाके सद्भाव व तत्सम्बन्धी शका समाधान -दे वह वह नाम । * अनिवृत्तिकरणके परिणास, आवश्यक व अपूर्वकरणसे अन्तर, अनिवृत्तिकरण लब्धि-दे. करण ६। * अनिवृत्तिकरणमे योग व प्रदेश बन्धकी समानताका नियम नहीं । दे करण ६ । * पुन पुन यह गुणस्थान प्राप्त करनेकी सीमा -दे सयम २। * उपशम व क्षपक श्रेणी-दे श्रेणी २.३।। * बादर कृष्टि करण–दे कृष्टि । * सभी गुणस्थानोमे आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे. मार्गणा। अनिष्ट-पदार्थ की इष्टता-अनिष्टता रागके कारणसे है। वास्तवमें कोई भी पदार्थ इष्टानिष्ट नही।-दे राग २ । अनिष्ट पक्षाभास-दे पक्ष ! अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान-दे आत ध्यान। अनिसृष्ट-वसतिका दोष-दे. बसति । आहारका दोष -दे आहार II/४/४। अनीक-स सि/४/४/२३६ पदात्यादीनि सप्त अनीकानि दण्डस्थानीयानी । = सेनाको तरह सात प्रकार के पदाति आदि अनीक कहलाते है। (रा. वा/४/४,७/२१३/६) । ति प/३/६७ सेपोवमा यणिया।६७ = अनीदेव सेनाके सुल्य होते है। त्रि सा/२२४ भाषा जे से राजाके हस्ति आदि सेना है वैसे देवोमें अनीक जातिके देव ही हस्ति आदि आकार अपने नियोग त होइ है।" १. अनीक देवोके भेद ति प/३/७७ सत्ताणीयं होति हु पत्तेक्क सत्त सत्त कक्रब जुदा । पार्म ससमाणसमा तद्गुणा चरमकवत ॥७७॥ सात अनीकोमें से प्रत्येक अनीक सात-सात कक्षाओसे युक्त होती है। उनमें-में प्रथम कक्षाका प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवोके बराबर तथा इसके आगे अन्तिम कक्षा तक उत्तरोत्तर प्रथम कक्षासे दूना-दूना प्रमाण होता चला गया है [७७ ज ५/४/१५८-१४६ सत्ताणिया पववरवामि । सोहम्मकप्पवासीइदस्स महाणुभाव स्स ॥१५८॥ बसभरहतुर यमयगलणच्चणगधब्बभिच्चवरगाण । सत्ताणीया दिट्ठा सत्तहि कच्छाहि स जुत्ता ॥१४६॥ = महा प्रभावसे युक्त सौधर्म इन्द्र की सात अनीकोका वर्णन करते है ॥१४८॥ बृषभ, रथ, तुरग, मदगल (हाथी), नतंक, गन्धर्व और भृत्यवर्ग इनकी सात कक्षाओसे सयुक्त सात सेनाए कही गयी है। त्रि सा /२८०.२३० कजरतुर यपदादोरहगधवा य ण चवसहात्ति । सत्तेवय अणीया पत्तेय सत्त सत्त क्वखजुदा २८०॥ । पढम ससमाणसम तदुगुण चरिमकवरवोत्ति ॥२३०॥ हाथी, घोड़ा, पयादा, स्थ, गन्धर्व, नृत्य को और वृषभ ऐसे सात प्रकार अनीक एक-एक है । बहूरि एक-एक अनोक सात-सात कथ कहिये फौज तिन करि सयुक्त है।२८०॥ तहाँ प्रथम अनीकका क्ष विप प्रमाण अपने-अपने सामानिक देव निके समान है । तातें दूमा दूणा प्रमाण अन्तका कक्ष विषै पर्यन्त जानना। तहाँ चमरेन्द्र के भंसानिकी प्रथम फोनि वि चौसठ हजार भै से है। तात दूगे दूसरी फौज विर्ष भैसे है। ऐसे सत्ताईस फौज पर्यन्त दुणेदूर्ण जानने । बहुरि ऐसे ही तथा इतने ही घाटक आदि जानने । याही प्रकार आरनिका यथ' सम्भव जान लेना ॥२३०॥ * इन्द्रो आदिके परिवारमे अनीकोका निर्देश-दे भवन वासो आदि भेद। २. कल्पवासी अनीकोकी देवियोका प्रमाण ति. प14/:२८ सत्ताणीय पहूण पुह पुह देवीओ छस्मया हाति । दोष्णि सया पत्तेक देवोओ आणीय देवाण ॥३२८॥-मात अन। कोके प्रभुओ के पृथक् पृथक् छ सौ और प्रत्येक अनोक के दा सौ देवियाँ होती है। अनीकदत्त-ह पु /३४/ श्लोक "पूर्व के चतुर्थ भव में भानू सेठके थर नामक राजपुत्र हुआ (१७-१८)। फिर पूर्व के तीसरे भव में चित्रचून विदाधरका पुत्र 'गरुडध्वज' हुआ (१३२-१३३) । फिर दूसरे भवमें गगदेव राजाका पुत्र 'गगरक्षित' हुआ (१४२-१४) । वर्तमान भवमें वसुदेव का पूत्र तथा कृष्ण का भाई था (३४/७) । कसके भयमे गुप्तरूपमे सुदृष्टि' नामक से ठ के घर पालन-पोषण हुआ था (३४/७) । धर्म श्रवण कर दीक्षा धारण कर लो (५६/११५-१२०) । अन्तमे गिरनार पर्वतसे मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६-१७)।" अनीकपाल-'अनोकदत्त' यत् हो है। नामोमें शूरके स्थानपर _ 'सुरदेव' और गगरक्षितके स्थानपर 'नन्द' पढना। अनीश्वरनय-दे नय I/५ । अन-स. सि./२/२६/१८३ अनुशब्दस्यानुपूर्येण वृत्ति । 'अनु'शब्दका अर्थ 'यथाक्रम करि' ऐमा है । (रा या /२/२६,२/१३७/२८) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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