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________________ गृहीत afar क्योंकि शरीरके केवल हल्कापन और केवल भारीपन नहीं पाया जाता । घ. ६/९.३-९२८/५८४ अरु णाम जीवस्स साहावियमस्थि ण, ससारावस्थाए कम्मपरतंतंम्मि तस्साभावा । ण च सहाव विणा से जीवस्स विणासो, लक्खणविणासे लक्खविणासस्स णाइयत्तादो। ण श्व णाण-दसणे मुच्चा जीवस्स अगुरुलहुअत्त लक्खणं, तस्स आयासादीसु वि उत्रलंभा। किं च ण एत्थ जीवस्स अगुरुल हुअत्त कम्मेण कीरह, किंतु जीवहि भरिओ जो पोग्गलक्खंधो, सो जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स गरुओ हलुवो वा त्ति जावडइ तमगुरुवल हुअं । तेण ण एत्थ जीव विसय अगुरुलहुवत्तस्स गहण । = - प्रश्न अगुरुलघु तो जीवका स्वाभाविक गुम है (फिर उसे यहाँ कर्म प्रकृतियों में क्यों गिनाया)। उत्तर- नहीं, क्योंकि ससार अवस्थामें कर्म परतत्र जीवमें उस स्वाभाविक अगुरुलघु गुणका अभाव है । यदि ऐसा कहा जाये कि स्वभावका विनाश माननेपर जीवका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि लक्षण के विनाश होनेपर लक्ष्यका विनाश होता है ऐसा न्याय है, सो भी यहाँ बात नहीं है, अर्थात् अगुरुलघु नामकर्मके विनाश होनेपर भी जीवका विनाश नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शनको छोडकर अगुरुलघुख जीवका लक्षण नहीं है, चॅकि वह आकाश आदि अन्य द्रव्योंमें भी पाया जाता है। दूसरी बात यह है कि यहाँ जीवका अगुरुलघुत्व कर्मके द्वारा नहीं किया जाता है किन्तु जीवमें भरा हुआ जो पुद्गल स्कन्ध है, वह जिस कर्मके उदयसे जीव के भारी या हलका नहीं होता है, वह अगुरुलघु यहाँ विवक्षित है। अतएव यहाँपर जीव विषय अगुरुलघुत्वका ग्रहण नहीं करना चाहिए । ६. अजीव द्रव्योंमें अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है रा.वा./८/११,१२/५७७/३२ धर्मादीनामजीवानां कथमगुरुलघुत्वमिति प्रश्न- धर्म चेत । अनादिपरिणामिका गुरुलघुत्व गुणयोगात् । अधर्मादि जीवयों में अगुरुलपुपना कैसे घटित होता है उत्तरअनादि पारिणामिक अगुरुलघुरन गुनके सम्बन्ध उनमें उसकी सिद्धि हो जाती है। ७. मुक्त जीवोंमें अगुरुलघु गुण कैसे घटित होता है रावा /८/११,१२/५७७/३३ मुक्तजीवाना कथमिति चेत् अनादिकर्मनोकमन्धानां कृतमगुरुसत्यम् तदत्यन्तविनो तु स्वाभाविकमाविर्भवति । - - प्रश्न- मुक्त जीवोमें ( अगुरुलघु ) कैसे घटित होता है, क्योंकि वहाँ तो नामकर्मका अभाव है ? उत्तर - अनादि कर्म नोर्मके बन्धन से बद्ध जीवोमें कर्मोदय कृत अगुरुलघु गुण होता है। उसके अत्यन्ताभाव हो जाने पर मुक्त जीवों के स्वाभाविक अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है । अगृहीत चेटिका स्त्री - दे. अगृहीत मिथ्यात्व मिथ्यादर्शन अग्नि- ज्ञा सा. ४७ अग्नि त्रिकोण रक्त [अग्नि त्रिकोण व लाल होती है। ३ ॥ १. अग्निके अंगारादि भेद मूला / २२१ इगालजालअच्ची मुम्मुरसुद्धागणी य अगणी य । ते जाण तेजीवा जाणित्ता परिहरेदब्बा। धुआँ रहित अगार, ज्वाला, दीपककी लौ, कडाको आग और वज्राग्नि, बिजली आदिसे उत्पन्न शुद्ध अग्नि सामान्य अग्नि- ये तेजस्कायिक जीव है. इनको जानकर इनकी हिंसा का ध्यान करना चाहिए (आचाराग निर्मुक्ति १६६) (पं. स.प्र./२/७३) (१/१.१.४२/२०३/१४२) ( आ./ /६०८/२०५) ( त सा./२/६४) । २. गार्हपत्य आदि तीन अग्नियोंका निर्देश व उपयोग म.पू. /४०/८२-३० योग्य प्रणेया स्यु कर्मारम्भे जिसमे रत्नत्रय कल्पादग्नीन्द्रमुकुटवा. १८२॥ तीर्थ Jain Education International ३५ महोत्सवे पूजाग समासाद्य पि कुण्डत्रये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नय । गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निप्रसिद्ध ॥८४॥ अस्मिन्ननिये पूजन कुच द्विमोसम आहिताग्निरिति हेवी निरवेया यस्मानि ॥८३॥ हविष्याके धूप दीनोबोधनसविधौ महीना विनियोग स्थादमीष नित्यपुजने ॥८६॥ प्रयत्नेनाभिरय स्वादिदमग्न गृहे मेय दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये ये स्युरसस्कृता ॥ ८७॥ न स्वतोऽग्ने' पवित्रत्त्र देवतारूपमेव किम्बाई दिव्यमूर्ती ज्यास बन्धाय पाथमोऽनल तत पूजाङ्गतामस्य मत्वार्चन्ति द्विजोत्तमा । निर्वाणक्षेत्रजात्पूजातो न दुष्यति ॥१॥ व्यवहारनयापेक्षा सस्पेश पूज्यता द्विजै। जैनैरध्यवहार्योऽय नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मन ॥१०॥ - क्रियाओके प्रारभमें उत्तम द्विजोको रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके इन्द्रके मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन प्रकारकी अग्नियाँ प्राप्त करनी चाहिए ॥ ८२ ॥ ये तीनो ही अग्नियाँ तीर्थकर, गणधर और सामान्य केवली के अन्तिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजाका अग होकर अत्यन्त पत्रको प्राप्त हुई मानी जाती है ॥ ८३ ॥ गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध इन तीनो महाग्नियोको तीन कुण्डो में स्थापित करना चाहिए ॥ ८४॥ इन तीनो प्रकारको अग्नियो में मन्त्री के द्वारा पूजा करनेवाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है। और जिसके घर इस प्रकारकी पूजा नित्य होती रहती है वह आहिताग्नि व अग्निहोत्री कहलाता है ॥८५॥ नित्य पूजन करते समय इन तीनो प्रकारकी अग्नियोका विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप नेमें और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्निसे नैवेद्य पकाया जाता है आहवनीय अग्निमें धूप सेई जाती है और दक्षिणाग्निदीप जलाया जाता है ॥ ८६॥ घरमें बड़े प्रयत्नसे इन तीनो अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे अन्य लोगों को कभी नही देनी चाहिए ॥८७॥ अग्निमें स्वयं पवित्रता नहीं है और न वह देवता रूप ही है किन्तु अन्त देवकी दिव्य मूर्तिकी पूजाके सम्बन्धसे वह अग्नि पवित्र हो जाती है ॥८८॥ इसलिए ही द्विजोत्तम लोग इसे पूजाका अंग मानकर इसकी पूजा करते है अत निर्वाण क्षेत्रकी पूजा के समान अग्निकी पूजा करनेमें कोई दोष नहीं है ॥ ॥ ब्राह्मणोंको व्यवहार नयकी अपेक्षा ही अग्निकी पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणोंको भी आज यह व्यवहार नय उपयोग में लाना चाहिए ॥१०॥ (और भी देखो यज्ञ में आई (भ जा./वि./८/१८४६) (५१) अग्नि * अर्हत पूजासे ही अग्नि पवित्र है स्वयं नहीं अग्नि २ । ३. क्रोधादि तीन अग्नियोंका निर्देश - म पु/०७/२०२-२०३ प्रयोजन समुदाको काम एराग्नयः । तेषु क्षमाविरागमान्नाहुतिभिर्मने ॥२०२३ स्वारणा परमद्विजा' । इत्यात्मयज्ञमिष्टार्थमष्टमीमवनी ययु ॥ २०३॥ - क्रोधानि कामाग्नि और उपराग्नि मे तीन अग्नियों बतलायी गयी है। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनइनकी आहुतियाँ देनेवाले जो ऋषि, यति, मुनि और अनगार रूपी श्रेष्ठ द्विज में निवास करते हैं वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ की देनेवाली अष्टम पृथिवी मोक्ष- स्थानकी प्राप्त होते है । ४. पंचाग्निका अर्थ पंचाचार पंचमहागुरु भक्तिपंचाचार-पंचसिाहया सुरिमोदितुम गयासंगया। जो पचाचार रूप पंचाग्निके साधक हैं वे आचार्य परमेष्ठी हमें उत्कृष्ट मोक्ष लक्ष्मी देवें। (विशेष दे पचाचार) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ५. प्राणायाम सम्बन्धी अग्निमण्डल ज्ञा./२१/२२,२७/२८८ स्फुलिङ्गपिङ्गल भीममूर्ध्व ज्वालाशता चितम् । त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तमीज वह्निमण्डलम् ॥ २२ ॥ बालार्कसंनि www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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