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________________ अग्निगति भश्योध्यं सत्यश्चतुरहुल। अत्युष्णो ज्वलनाभिख्यपवन कीर्तितो बुधैः ॥२७॥ अग्निके स्फुलिंग समान पिंगल वर्ण भीम रौद्र रूप ऊर्ध्वगमन स्वरूप सैकडों ज्वालाओं सहित त्रिकोणाकार स्वस्तिक (साथिये) सहित निज मण्डित ऐसा वह्निमण्डल है ॥२२॥ जो उगते हुए सूर्य के समान रक्त वर्ण हो तथा ऊँचा पलता हो. आयत (चक्रों) सहित फिरता हुआ चले चार अंगुल बाहर आवे और अति ऊष्ण हो ऐसा अग्निमण्डलका पवन पण्डितोंने कहा है। ३६ ६. आग्नेयी धारणाका लक्षण ज्ञा./२०/१०-११/३८२ सोऽसी मिचलाभ्यासात्कमलं नाभिमण्डले। स्मरस्यतिमनोहारि २९.६ प्रतिपत्रसमासीनस्वरमालाविराजितम् । कर्णिकाया महामन्त्र विस्फुरन्तं विचिन्तयेत् १११ रेफ साबिन्दुलायितं शुन्यमक्षरस्सदिन्दुष्ट कोटिकाव्याहरिमुख॥९२॥ तस्य रेफाद्विनिर्माती शनैर्धूमशियां स्मरेव स्फुलिङ्गसंतति पश्चाज्ज्यानास तदनन्तरम् ॥१३३ तेन ज्यालाकलापेन वर्धमानेन संततम्। दहत्यविरतं धीर पुण्डरीड हृदिस्थितम् ॥११॥ तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् । दहत्येव महामन्त्रध्यानोरथ प्रचनोऽनल ॥१५॥ ततो वहि शरीरस्य त्रिकोण बह्निमण्डलम् भ्मरेज्ज्वालाक्लापेन वसन्त मित्रा महिमाकान्त पर्यन्ते स्वस्तिका वायुपुरोभूत निर्धूमाभ 1१०० अन्तर्दहति मन्त्राहि पुर ॥१७॥ पुरम् । धमद्वगितिविस्फूर्जज्ज्वालाप्रचयभासुरम् ॥ १८ ॥ भस्मभावमसौ नीरखा शरीर तच्च पङ्कजम्। दाह्याभावात्स्वय शान्ति याति वह्नि दाने शनै ॥१६॥ सुरश्चाद (पार्थिवी धारणाके) योगी (पानी) निश्चल अभ्यास से अपने नाभिमण्डल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्रों के एक मनोहर कमलका ध्यान करे ॥१०॥ तत्पश्चात् उस कमलकी कर्णिका में महामन्त्रका ( जो आगे कहा जाता है उसका ) चिन्तवन करे और उस कमल के सोलह पत्रो पर 'अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ऌ ऌ ए ऐ ओ औ अं अः इन १६ अक्षरोंका ध्यान करे ॥ ११॥ रेफ से रुद्ध कहिए आवृत और क्ला तथा बिन्दुसे चिह्नित और शून्य कहिए हकार ऐसा असर सख्त कहिए देदीप्यमान होते हुए बिन्दुकी घटाकोटिकी कान्तिसे व्याप्त किया है दिशाका मुख जिसने ऐसा महामन्त्र "हैं" उस कमलकी कर्णिकामें स्थापन कर, चिन्तवन करें ||१२|| तत्पश्चात् उस महामन्त्रके रेफसे मन्द मन्द निकलती हुई धूम (एँ) की शिखाका चितवन करे तत्पश्चात् उसमे अनुप्रमाह रूप निकलते हुए स्फुलिंगों की पक्तिका चिन्तन करे और पश्चात उसमें से निकलती हुई ज्वालाकी लपटोका विचारै ॥१३॥ तत्पश्चात् योगी मुनि क्रम बढते हुए उस ज्वाला समुहसे अपने हृदयस्थ कमलको निरन्तर जलाता हुआ चिन्तवन करे || १४ || वह हृदयस्थ कमल अधोमुख आठ पत्रका है। इन आठ पत्रोपर आठ कर्म स्थित हो । ऐमे नाभिस्थ कमलकी कर्णिकामें स्थित "हे" महामन्त्रके ध्यान से उठी हुई प्रबल अग्नि निरन्तर दहती है, इस प्रकार चिन्तन करै तत्र अब कर्म जल जाते है यह चेतन्य परिणामो की सामर्थ्य है ॥ १५ ॥ उस कमलके दग्ध हुए पश्चात् शरीर के बाह्य त्रिकोण चिन्तन करें, सो ज्वाला के समूह से जलते हुए बडवानलके समान ध्यान करे ॥१६॥ तथा अग्नि बीजाक्षर 'र' से व्याप्त और अन्तमें साथिया चिह्नसे चिह्नित हो ज मामण्डलसेर धूम रहित काचनको सो प्रभावाला चिन्तवन करे ||१७|| इस प्रकार वह धगधगायमान फैलती हुई लपटोके समूहों से दैदीप्यमान बाहरका अग्निपुर (अग्निमण्डल ) अन्तरगकी मन्त्राग्निको दग्ध करता ||१८|| तत्पश्चात् यह अग्निमण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरोरका भस्मीभूत करके दाहाका अभाव होनेसे धीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाता है ॥ १६ ॥ (त. अनु १८४) अग्नि गति एक विद्या-दे विद्या । Jain Education International अग्नि जीव* अग्नि जीव सम्बन्धी, गुणस्थान, जोब समास, आदि २० प्ररूपणाएँ - दे सत् । मार्गणा स्थान * 'सव, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणा - दे. वह वह नाम । * तैजस कायिकों में वै क्रियक योगकी सम्भावना - दे. वैक्रियक । * मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणाको इष्टता तथा वहाँ आयके अनुसार व्यय होनेका नियम- दे. मार्गणा । * अनिकायिकों में कर्मोंके बन्ध उदय सत्त्व दे वह वह नाम । * अझिमें पुदगल के सर्व गुणोका अस्तित्पदे पुल १० * अग्नि जीबी कर्म- दे. सावध ५ । * अग्निमें कथचित सपना - दे. स्थावर ६ । * अनिके कायिकादि चार भेद - दे, पृथिवी । * तैजसकायिक में आतप व उद्योतका अभाव -- दे. उदय ४ । अज्ञान ** 'सूक्ष्म अनिकायिक जीव सर्वत्र पाये जाते है-दे क्षेत्र ४ । • मदरसे जसकादिक भवनवासी विमानो व आठो पृथिवियोंगे * रहते है, परन्तु इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। दे काय २ / ५ । अग्निज्वाल- - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर । अग्निदेव * भूतकालीन ११वे तीर्थंकर तीर्थंकर ५ * लोकपालोके भेद रूप अग्नि । -दे लोकपाल । * अनलकायिक आकाशोपपन्न देव - दे देव II / १ । सौकान्तिक * जास * अग्निज्वाल नामा ग्रह दे ग्रह * अग्निकुमार भवनवासी देव - दे भवन १ । * अनिरुद्धनामा असुरकुमार देव - दे. असुर । * -- भौतिक अग्नि देवता रूप नहीं है । - दे अग्नि २ । अग्निप्रभदेव (३१/७२ ) इस ज्योतिष देवनेश कुलभूषण मुनियोंपर घोर उपसर्ग किया। जो वनवासी राम व लक्ष्मण के आनेपर शान्त हुआ । अग्निभूति - /४३/ १००.१३६- १४६) मगधदेश शालिग्राम निवासी सोमदेव ब्राह्मणका पुत्र था। मुनियों से पूर्वभवका श्रवण कर लज्जा एव द्वेषपूर्वक मुनि हत्याका उद्यम करनेपर यक्ष-द्वारा कील दिया गया। सुनी दमासे छूटने पर अन ग्रहण कर अन् सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। अग्निमित्र - १ ( म पु / ७४ /७६) एक ब्राह्मण पुत्र था । यह वर्धमान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only भगवान्का दूरवर्ती पूर्वका भव है --दे वर्धमान । २ मगध देशको राजवंशावली अनुसार यह एक शक जातिका सरदार था जिसने मौर्य काल में ही मगध देशके किसी एक भागपर अपना अधिकार जमा रखा था। इसका अपर नाम भानु भी था। यह वसुमित्र के समकालीन था । समय- वी नि २८५-३४५ ई पू. २४२-१८२ । दे - इतिहास ३ । अग्निसह (म/०४/०४) एक महान पुत्र था। यह वर्धमान भगवान्का दूरवर्ती पूर्वभव है- वर्धमान अज्ञात 16/६/२२२ मारमादाद्वावप्रवृत्तिरात = मद या प्रमादके कारण बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात भाव है। (रा.वा./६/६/४/२९२/४) । अज्ञातसिद्ध एक हेखाभास - दे, अभिद्ध । अज्ञान - जैनागमनें अज्ञान शब्दका प्रयोग दो अर्थों में होता है-एक तो ज्ञानका अभाव यामीके अर्थने और दूसरा मिथ्याज्ञानके अर्थमें । पहले वाले को औदयिक अज्ञान और दूसरेवालेको क्षायोपशमिक www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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