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________________ अगासदेव अगुरुलघु उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि यहॉपर भावागार विवक्षित है। चारित्र मोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है। वह जिसके है वह वनमें निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं है वह घरमे बसते हुए भी अनगार है । ( रा वा /७/१६,१/५४६/२४) ( त सा /४/७६ ) (विषय विस्तार दे श्रावक)। अगासदेव--(म पु / २०/प पन्नालाल) आप एक कवि थे। कृति चन्द्रप्रभपुराण। अगुणी-दे. गुणी। अगुप्ति भय-दे भय। अग्ररुलघ-जड या चेतन प्रत्येक द्रव्यमे अगुरुलघु नामका एक सूक्ष्म गुण स्वीकार किया गया है जिसके कारण वह प्रतिक्षण सूक्ष्म परिणमन करते हुए भी ज्योंका त्यो बना रहता है। सयोगी अवस्था में वह परिणमन स्थूल रूपसे दृष्टिगत होता है। शरीरधारी जीव भी हलकेभारीपनेकी कल्पनामे युक्त हो जाता है। इस कल्पनाका कारण अगुरुलधु नामका एक कर्म स्वीकार किया गया है। इन दोनोका ही परिचय इस अधिकार में दिया गया है। १. अगुरुलघु गुणका लक्षण (षट् गुण हानि वृद्धि) आ प/६ अगुरुनघोर्भावोऽगुरुल घुत्वम् । सूक्ष्मावागगोचर प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुलघुगुणा । अगुरुलघु भाव अगुरुलघुपन है। अर्थात जिस गुणके निमित्तसे द्रव्यका द्रव्यपना सदा बना रहे अर्थात् द्रव्यका काई गुण न तो अन्य गुण रूप हो सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके निमित्तसे प्रत्येक द्रव्यमें तथा उसके गुणो में समय समय प्रति षट् गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे अगुरुलघु गुण कहते है। अगुरुलधु गुणका यह सूक्ष्म परिणमन वचनके अगोचर है, केवल आगम प्रमाण गम्य है। स.मा /आ. परि /शक्ति न १७ षट् स्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्व कारण विशिष्टगुणात्मिका अगुरुलघुत्व शक्ति 1-षट्स्थान पतित वृद्धि-हानिरूप परिणत हुआ जो बस्तुके निज स्वभावकी प्रतिष्ठाका कारण विशेष अगुरुलघुत्व नामा गुण-स्वरूप अगुरुलघुत्व नामा सत्रहवीं शक है। प्र.सा /ता वृ./८०/१०१ अगुरुलघुकगुणषड्वृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षण प्रवर्तमाना अर्थपर्याया' । - अगुरुलघु गुणकी षड्गुणहानि वृद्धि रूपसे प्रतिक्षण प्रवर्तमान अर्थ पर्याय होती है। २. सिद्धोंके अगुरुलघु गुणका लक्षण द्र स टी /१४/४३ यदि सर्वथा गुरुत्व भवति तदा लोहपिण्वदधःपतन, यदि च सर्वथा लघुत्व भवति तदा वाताहतार्कतूलवत्सब देव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तेस्मादगुरुलधुत्वगुणोऽभिधीयते । यदि उनका स्वरूप सर्वथा गुरु हो तो लोहेके गोलेके समान वह नीचे पडा रहेगा और यदि वह सर्वथा लघु हो तो वायुसे प्रेरित आककी रूईको तरह वह सदा इधर-उधर घूमता रहेगा, किन्तु सिद्धोका स्वरूप ऐसा नहीं है इस कारण उनके 'अगुरुलघु' गुण कहा जाता है। प.प्र.टी./१/६१/६२ सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्व नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनित महत्त्व भण्यते.लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्व प्रच्छाद्यत इति । - सिद्धावस्थाके योग्य विशेष अगुरुलघुगुण, नामकमके उदयसे अथवा गोत्रकर्मके उदयसे ढंक 'गया है। क्योंकि गोत्र कर्म के उदयमे जब नीच गोत्र पाया, तब तुच्छ ग्रा लघु कहलाया और उच्च गोत्रमें बडा अर्थात गुरु कहलाया। ३. अगुरुलघु नामकर्मका लक्षण स सि /८/११/३११ यस्योदयादय पिण्डबद्ध गुरुत्वान्नाध पतति न चाकंतुलबललघुत्वादूवं गच्छति तद गुरुलघु नाम । जिसके उदयसे लोहे के पिण्डके समान गुरु होनेसे न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु ह नेसे ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। (रा. वा./८/११/१२/५७७/३१) (गो क/जी.प्र/३३/२६/१२)। ध.६/१,६-१.२८/५८/१ अण ताण तेहि पोग्गले हि आऊरियस्स जीवस्स जेहि कम्मरत्न धेहितो अगुरुअल हुअत्त होदि, तेसिमअगुरुअलहुई त्ति सण्णा, कारणे कज्जुबयारादो। जदि अगुरुअलहुवकम्म जीवस्स ण होज्ज, तो जीवो लोहगोल ओ त्र गरुअआ अक्तूलं व हलुओ बा होज्ज । ण च एवं अणुबलभादो।- अनन्तानन्त पुद्गलोंसे भरपूर जीवके जिन कमस्कन्धोके द्वारा अगुरुलघुपना होता है, उन पुद्गल स्कन्धोकी 'अगुरुलघु' यह सज्ञा कारणमें कार्य के उपचारसे की गयी है। यदि जीवके अगुरुलघु कर्म न हो, तो या तो जीव लोहेके गोलेके समान भारी हो जायेगा, अथवा आकके तूलके समान हलका हो जायेगा। किन्तु ऐसा है नही, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता है। (घ १३/५५.१०१/३६४/१०)। ध ६/१,६-२,७६/११४/३ अण्णहा गरुअसरीरेण दुद्धो जीवो उठेदु'पि ण सक्के उज । ण च एव, सरीरस्स-अगुरु-अलहु अत्ताण मणुवलंभा ।यदि ऐसा (इस कर्मको पुद्गल विपाकी) न माना जाये, तो गुरु भार बाले शरीरसे संयुक्त यह जीव उठनेके लिए भी न समर्थ होगा। किन्तु ऐसा है नही, क्योकि शरीरके केवल हलकापन और केवल भारीपन नही पाया जाता है। * अगुरुलघु नामकर्मकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम आदि-दे. वह वह नाम । ४. अगुरुलघु गुण अनिर्वचनीय है। आ./ सूक्ष्मावाग्गोचरा आगमप्रमाणादभ्युपगम्या अगुरुरू घुगुणा । - अगुरुनघु गुणका यह सूक्ष्म परिणमन वचनके अगोचर है। आगम प्रमाणके ही गम्य है। (न, च //५७)। पंध पू/१६२ कित्व स्ति च कोऽपि गुणोऽनिर्वचनीय स्वत सिद्ध । नाम्ना चागुरुलघुरिति गुरुलक्ष्य' स्वानुभूतिलक्ष्यो वा । किन्तु स्वत सिद्ध और प्रत्यक्षदर्शियों के लक्ष्य में आने योग्य अर्थात केवलज्ञानगम्य अथवा स्वानुभूतिके द्वारा जाननेके योग्य तथा नामसे अगुरुल्धु ऐसा कोई वचनोके अगोचर गुण है। ५. जीवके अगुरुलघु गुण व अगुरुलघु नाम कर्मोदयकृत अगुरुलधुमें अन्तर ध ६/१६-२,७८/२१३/११ अगुरुअन अत णाम सधजीवाणं पारिणामियम त्यि, सिद्धसु वीणासेसकम्मेसु वि तमुरलंभा। तदो अगुरुअनहू अक्म्मम्स फल भावा तस्साभावो इदि। एत्थ परिहारो उच्चदे-होज्ज एसो दोसो जदि अगुरुअनहअ जीव विबाई होदि । कितु ए६ पोग्गल विवाई अगताण तपोग्गले हि गरुवपासेहि आरद्धस्स अगुरुअल हुअत्तुप्यायणादो। अण्णहा गरुअसर रेण दृद्धा जीवो उठेदु पि ण सज्ज । ण च एव, सरीरस्स अगुरु-अलहु अत्ताणमणुवल भा। शका-अगुरुलघु नाम का गुग सर्व जोबो में पारिणामिक है. क्योकि अशेष कर्मो से रहित सिद्धोमे भी उसका सद्भाव पाया जाता है। इसलिए अगुरुनधु नामक्रम का कोई फल न होनेसे उसका अभाव मानना चाहिए । उत्तर--यहॉपर उक्त शकाका परिहार करते है। यह उपर्युक्त दोष प्राप्त होता, यदि अगुरुलघु नाम-धर्म जीव विपाकी होता। किन्तु यह कर्म पुद्गल विपाकी है, क्योंकि गुरुस्पर्शबाले अनन्तानन्त पुदगल वर्गणाअ.के द्वारा आरब्ध शरीरके अगुरुलधुताकी उत्पत्ति होती है। यदि ऐसा न माना जाये, तो गुरु भारवाले शरीरसे सयुक्त यह जीव उठनेके लिए भी न समर्थ होगा। किन्तु ऐसा है नही, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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