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________________ गुण ९ द्रव्यमें अनन्त गुण हैं = घ ६/४.१.२/२७/६ अण तेसु बट्टमाणपज्जारसु तत्थ आवलियाए अस खेज दिमागमेत्तपजाया जहन्तोहिगारोग विसकया जहाभागो । के वि आइरिया जहणदव्वस्सुव रिट्ठिदरूव-रस-गध- फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणं ति । तण्ण घडदे, तेसिमाण तियादो। ण हि ओहिणामुपस्सं पि अगं तसं खावगमकलम आगमे सहोवदेसाभावादो। उस ( द्रव्य) की अनन्त वर्तमान पर्यांयोमेसे जवन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवे भागमात्र पर्याये जघन्य भाव है। कितने आचार्य 'जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायोको उक्त अवधिज्ञान जानता है' ऐसा कहते है। किन्तु वह घटित नही होता, क्योंकि, वे अनन्त है। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्या के जाननेमें समर्थ नहीं है क्योंकि उपदेशका अभाव है। नोटअनन्त गुणोकी ही एक समयमें अनन्त पर्याये होनी संभव है ) । न. च वृ/ ६६ इगवीसं तु सहावा जीवे तह जाण पोग्गले णयदो । इयराणं संभवादो णायन्त्रा णाणवंतेहिं । ६६ । जीव व पुद्गल मे २९ स्वभाव जानने चाहिए और शेष सभव स्वभावोको ज्ञानियो से जानना चाहिए। - ल सा./१/३७ - वस्तुनोऽनन्तधर्मस्य प्रमाणव्यञ्जितात्मन । अनन्त धर्म या गुणोके समुदायरूप वस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है। का आ / टी / २२४/१५६/११ सर्वद्रव्याणि त्रिष्वपि कालेषु अनन्तानन्ता] सन्ति, अनन्तानन्तपर्यायात्मकानि भवन्ति, अनन्तानन्तसद सन्नित्यानित्याद्यनेकधर्मविशिष्टानि भवन्ति । अत सर्व द्रव्यं जिनेन्द्र अनेकान्तं भणितं । = तीनो ही कालोमे सर्व द्रव्य अनन्तानन्त है, अनन्तानन्त पर्यायात्मक होते है; अनन्तानन्त, सत्, असत् नित्य, अनित्यादि अनेक धर्मो विशिष्ट होते है इसलिए जिनेन्द्र देवाने सर्व द्रव्योको अनेकान्त स्वरूप कहा है। / /४६ देशस्वेका शक्तियों काचिद सा न शक्ति स्यात् क्रमतो विमाणा भवन्त्यनन्ताश्च शक्तयो व्यक्ता |४६| = द्रव्यकी एक विक्षित शक्ति दूसरी शक्ति नहीं हो सकती अर्थात सम अपने-अपने स्वरूपसे भिन्न-भिन्न है, इस प्रकार क्रमसे सब शक्तियोका विचार किया जाय तो प्रत्येक वस्तुमे अनन्तो ही शक्तियाँ स्पष्ट रूपसे प्रतीत होने लगती हैं (पं. ध/५२) प./२०१४ गुणाना चायनन्त वाग्व्यवहारगौरवात्। गुगा केचित्समुद्दिष्टा प्रसिद्धा पूर्वसूरिभि ९०९४॥ यद्यपि गुणोमें अनन्तपना है तो भी प्राचीन आचार्योंने अति ग्रन्थ विस्तारसे गौरवदोष आया है इसलिए सक्षेप प्रसिद्ध प्रसिद्ध कुछ गुणोका नामोल्लेख किया है। - २४४ = Jain Education International १०. जीव द्रश्य में अनन्तगुणांका निर्देश सा/आ./२ अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मन। अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशिताम् |२| स.सा./आ / परि अत एवास्य ज्ञानमात्रै भाषान्स पालिन्योऽनन्ता शक्तय उत्प्लवन्ते । । = १ जिसमे अनन्त धर्म है ऐसे जो ज्ञान तथा वचन तन्मयी जो मूर्ति (आत्मा) सदा ही प्रकाशमान है । २१ २ अतएव उस ( आत्मा ) में ज्ञानमात्र एक भावकी अन्त पातिनी अनन्त शक्तियाँ उछलती है। T सेटो / १४/४३३६ एवं मध्यमरुचिशिष्यापेक्षमा सम्वादिगुणाक भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनविशेषभेदेन येन निर्गतित्व, निरिन्द्रियल निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तु मास्तित्ववस्त्य प्रमेयत्वादिसामान्यगुणा' स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्या । इस प्रकार (सिद्धोमे) सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के - गुणनंदि लिए है । मध्यम रुचिवाले शिष्योके प्रति विशेष भेदनयके अवलम्वन गति रहितता, इन्द्रियरहितता आदरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिए । ६. १४३ उच्यतेऽनन्तधर्माधिरूढोऽप्येक सचेतन अर्थ जा यतो यावत्स्यादनन्तगुणात्मकम् | १४३ | = एक ही जीव अनन्त धर्म युक्त कहा जाता है, क्योकि, जितना भी पदार्थका समुदाय है वह सब अनन्त गुणात्मक होता है। ११ गुणके अनन्तत्व विषयक शंका व समन्वय ससा / आ / क२ / प जयचन्द - प्रश्न- आत्माको जो अनन्त धर्मवाला कहा है, सो उसमे वे अनन्त धर्म कौनसे है उत्तरवस्तुमे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तित्व, अमूर्तित्व इत्यादि (धर्म) तो गुण है और उन गुणोका तीनो कालो मे समय समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त है । और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म है। वे सामान्यरूप धर्म तो वचन गोचर है. किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी है, जो कि बचनके विषय नही है, किन्तु वे ज्ञानगम्य है । आत्मा भी वस्तु है इसलिए उसमें भी अपने अनन्त धर्म है । १२. द्रव्यके अनुसार उसके गुण भी मूर्त या चेतन आदि कहे जाते हैं। प्रसा/ मू / १३१ मुत्ता इंदियगेज्झा पोरगलदव्बप्पा अणेगविधा । दत्राणममुत्ताण गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ॥ १३१ ॥ - इन्द्रियग्राह्यमूर्त गुण पुद्गलद्रव्यात्मक अनेक प्रकारके है । अमूर्तद्रव्यो के गुण अमूर्त जानना चाहिए। पंका/प्र/४६ मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा । = मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण होते है। निसा /ता वृ / १६८ मूर्तस्य मूर्त गुणा, अचेतनस्याचेतनगुणा, अमूर्तस्यार्तगुणा चेतनस्य चेतनगुणामूर्त द्रव्यके गुण होते है, अचेतनके अचेतन गुण होते हैं, अमूर्त के अमूर्त गुण होते है, चेतन के चेतनगुण होते है। 1 गुणक - जिस राशि द्वारा किसी अन्य राशिको गुणा किया जाये - दे० गणित /11/१/५ गुणकार - गुणकवत् । गणित / II / १/५ । गुणकीर्ति - १. कि पुराण, धर्मामृत, रुकमणि हरण, पद्मपुराण श्रेणिक और रामचन्द्र दुति के रचयिता एक मराठी कवि (ती./४/३११) २. देशीय आचार्य समय ११०१०४३ दे इतिहास / ७ /21 गुणत्व --- ( वैशे द / १-२ / सूत्र १३ तथा गुणेषु भावात गुणत्वम् | १३| = सम्पूर्ण गुणोमे रहनेवाला गुणत्व द्रव्य गुण कर्म से पृथक् है । गुणधर - दिगम्बर आम्नाय धरसेनाचार्य की भाँति आपका स्थान पूर्वविदों की परम्परा में है। आपने भगवान वीर से आगत 'पेज्ज दोसपाहुड' के ज्ञान को १८० गाथाओं में बद्ध किया जो आगे जाकर आचार्य परम्परा द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त हुआ। इसी को विस्तृत करके उन्होंने 'कषाय पाहुड' की रचना की। समय-बी नि.श.का पूर्वार्ध (वि. वा. १) (विशेष कोश / परिशिष्ट ३/२) गुणनंदि १ – नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप जयनन्दिके शिष्य तथा वज्रनन्दिके गुरु थे । समय वि. शक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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