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________________ आचलक्य २४३ आत्मवाद उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्र में स्थिर बुद्धि हो, इस प्रकारके गुणवाला जिन शासन में प्रतिष्ठाचार्य कहा गया है। ३. बालाचार्यका लक्षण भ आ./मू २७३-२७४ कालं संभाविता सव्वगणमणु दिसं च बाहरियं । सोमतिहिकरणणवत्तविलग्गे मगलागासे ॥२७३॥ गवाणुपालणस्थ आहोइय अत्तगुणसम भिक्खू । तो तम्मि गणविसग्ग अप्पकहाए कुणदि धोरो ॥३७४॥ - अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर तदनन्तर अपने शिष्य समुदायको अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है, ऐसे बालाचार्यको बुलाकर सौम्य तिथि, करण, नक्षत्र और लग्नके समय शुभ प्रदेशमें, अपने गुण के समान जिसके गुण है, ऐसे वे बालाचार्य अपने गच्छका पालन करनेके योग्य है ऐसा विचार कर उसपर अपने गणको विसर्जित करते है अर्थात् अपना पद छोडकर सम्पूर्ण गणको बालाचार्य के लिए छोड़ देते है । अर्थात पालाचार्य ही यहाँसे उस गणका आचार्य समझा जाता है, उस समय पूर्व आचार्य उस बालाचार्यको थोड़ा-सा उपदेश भी देते है । * निर्यापकाचार्यका लक्षण -दे निर्यापक। *निर्यापकाचार्य कर्तव्य विशेष -दे, सल्लेखना। आचेलक्य-दे.अचेनकत्व । आछेद्य-आहारका एक दोष ।-दे आहार II/४/४ । आजांव- आहारका एक दोष । दे आहार II/४/४ । २ वस्तिका । का एक दोष । दे. वसतिका । आजीवक मत-दे 'पूरन कश्यप' व त्रैराशिवाद । आजीविका-साधुको आजीविका करनेका सर्वथा निषेध । दे मत्र। आठ-दे अष्ट। आढक-तोलका प्रमाण विशेष । दे. गणित I/१/२। आतप-स सि५/२४/२६६ आतप आदित्यादिनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षण । = जो सूर्य के निमित्तसे उष्मा प्रकाश होता है उसे आतप कहते है । रा वा ५/२४/१८/२०/४८६) (ध ६/१६-१,२८/६०/४) रा.वा १/२४/१/४८५/१६ असद्दवेद्योदयाद आतपत्यात्मानम, आतप्यतेऽनेन, आतपनमात्र वा आतप । -असाता वेदनीयके उदयसे अपने स्वरूपको जो तपाता है, या जिसके द्वारा तपाया जाता है, या आत पन मात्रको आतप कहते हैं। त सा.३/७१ आतपनोऽपि प्रकाश' स्यादुष्णश्चादित्यकारण । .. सूर्य से जो उष्णतायुक्त प्रकाश होता है उसे आतप कहते है। गो.क./म् ३३ मूलुहपहा अग्गो आदावी होदि उण्हसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोत्तो॥३६॥ - अग्नि है सो मूल ही उष्ण प्रभा सहित है, तातै वाकै स्पर्शका भेद उष्णताका उदय जानना बहुरि जाको प्रभा हो उष्ण होइ ताकै आतप प्रकृतिका उदय जानना, सौ सूर्यका बिंब विर्षे ऊपजैं ऐसे बादर पर्याप्त पृथ्वीकायके तियंच जोब तिन होकैं आतप प्रकृतिका उदय है। द सं/टो. १६/५३ आतप आदित्यविमाने अन्यत्रापि सूर्यकान्तमणिविशेषादौ पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः । = सूर्यके बिम्ब आदिमें तथा सूर्यकांत विशेष मणि आदि पृथ्वीकायमें आतप जानना चाहिए। २. आतप नामकर्मका लक्षण स.सि ८/११/३६१ यदुदयानिवृत्तमातपन तदातपनाम । = जिसके उदय से शरीरमें आतपकी प्राप्ति होती है, वह आतप नामकर्म है । (रा.वा ८/११/१५/५७८), (गो.क/जी.प्र.३३/२६/२१), (ध.६/१,६-१,२८/६०/४) (ध.१३/५०५,१०१/३६५/१) ३. आतप तेज व उद्योतमे अन्तर -दे. उदय/४। आतपन-तीसरे नरकका चौथा पटल-दे नरक ५/११ ॥ आतपन योग-दे, कायक्लेश । आत्म-१ आत्म ग्रहण दर्शन है। -दे दर्शन, २ आत्म रूपकी अपेक्षा वस्तु में भेदाभेद । -दे सप्तभगी/१/८ । आत्मख्याति-आ.अमृतचन्द्र (ई.६०५-६४५) द्वारा सस्कृत भाषामें रचित समयसारको टोका। यह टीका इतनी गम्भीर है कि मानो आ कुन्दकुन्दका हृदय ही हो। इस टीकामें आये हुए कलश रूप श्लोकोका सग्रह स्वय 'परमाध्यात्मतर गिनी' नामके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ रूपसे प्रसिद्ध हो गया है। (तो. २/४१५) आत्मद्रव्य-दे. जीव । आत्मप्रवाद द्रव्य श्रुतज्ञानका १३वाँ अग। दे. श्रुतज्ञान/ IIII आत्मभूत कारण-दे. कारण । आत्मभूत लक्षण-दे लक्षण । आत्ममुखहेत्वाभास-दे बाधित/स्ववचम् । आत्मरक्ष देव-स सि ४४/२३६ आत्मरक्षा शिरीरक्षोपमाना' । - जो अग रक्षकके समान है वे आत्मरक्ष कहलाते है रा वा ४/४/ ५/२१६), (म प्र.१/२२/२७) ति प. ३/६६ चत्तारि लोयपाला सावण्णा हो ति तंतवालाण' । णु रक्वाण समाणा सरीररक्वा सुरा सव्वे ॥६६॥ = चार लोक्साल तन्त्रपालो के सहश और सब तनु रक्षक देव राजाके अग रक्षकके समान होते है। रा.वा ४/५/२१३/१आत्मान रक्षन्तीति आत्मरक्षास्ते शिरारक्षोपमा। आवृतावरणा प्रहरणोद्यता रौद्रा पृष्टतोऽवस्थायिन *जो अरारक्षकके समान है, वे आत्मरक्ष कहलाते है। अगरक्षकके समान कवच पहिने हुए सशस्त्र पीछे खडे रहनेवाले आत्मरक्ष है।। त्रि.सा २२४ - बहुरि जैसे राजाके अगरक्षक तैसे तनुरक्षक है। २. कल्पवासी इन्द्रोके आत्मरक्षकोकी देवियोका प्रमाण ति प ८/३१६-३२० पडिइ'दादितियस्स य णियणियइ देहि सरिसदेवीओ ॥३१६॥ तपरिवारा कमसो चउएक्कासहस्सयाणि पचसया । अड्ढाइज्जमयाणि तद्दलते सटिठबत्तीसं ॥३२० प्रतीन्द्रादिक तीनकी देत्रियोकी सख्या अपने-अपने इन्द्र के सदृश होती है ॥३१॥ उनके परिवारका प्रमाण क्रमसे चार हजार, एक हजार, पाँच सौ, अढाई सौ, इसका आधा अर्थात एक सौ पच्चीस, तिरेसठ और बत्तीस है। अर्थात सौधर्मेन्द्र के आत्मरक्षोकी ४०००, ईशानेन्द्र की ४०००, सनत्कुमारेन्द्र की २०००, माहेन्द्रकी १०००, ब्रह्मन्द्र की ५००, लान्तवेन्द्रकी २५०, महाशुकेन्द्र की १२५, सहस्रारेन्द्र की ६३, आनतादि ४ इन्द्रोके आत्मरक्षकोकी देवियों का प्रमाण कुल ३२ है। ३. इन्द्रो व अन्य देवोके परिवारमे आत्मरक्षकोका प्रमाण -दे, भवनवासी आदि भेद आत्मवाद १ मिथ्या एकान्तकी अपेक्षा गो.क मू. ८८१/१०६५ एकको चेव महप्पा पुरिसो देवो य सम्बवावी य । सव्वं गणिगूढो विय सचेयणो णिग्गुणो परमो। एक ही महात्मा है। सोई पुरुष है, देव है। सर्व विधै व्यापक है। सर्वागपने निगूढ कहिये अगम्य है। चेतना सहित है। निर्गुण है। परम उत्कृष्ट है। ऐसे एक आत्मा करि सबको मानना सो आत्मवादका अर्थ है। (स. सि.८/१/५ की टिप्पणी) जगरूप सहाय कृत । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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