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________________ गुणन गुणस्थान स. ३५८-३६४ (ई ४३६-४४२) । (-दे० इतिहास/७/२)। मर्कराके ताम्रपटमे इनका नाम कुन्दकुन्दान्वयमे लिया गया है। अन्वयमे छह आचार्योंका उल्लेख है, तहाँ इनका नाम सबके अन्तमे है । ताम्रपटका समय-श ३८८ (ई ४६६) है। तदनुसार भी इनका समय ऊपरसे लगभग मेल खाता है। (क.पा १/प्र ६१/प महेन्द्र)। २. गुणनन्दि न, २, नन्दिसधके देशीय गणके अनुसार अकल कदेवकी आम्नायमे देवेन्द्राचार्य के गुरु थे। समय--वि स १००-६३० (ई. ८४३-८७३) । (ष रख २/प्र.१०/ H.L. Jain); (दे० - इतिहास/७/21 गुणन-गणित विधिमे गुणा करनेको गुणन कहते है-दे० गणित / II/१/५ । गुणनाम-दे० नाम। गुणपर्याय-दे० पर्याय । गुणप्रत्यय-दे० अवधिज्ञान । गुणभद्र-१ पचस्तूप संधी, तथा महापुराण और जयधवला शेष के रचयिता आ, जिनसेन द्वि० के शिष्य । कृति-अपने गुरु कृत महापुराण को उत्तरपुराण की रचना करके पूरा किया। आत्मानुशासन, जिनदत्त चरित। समय-शक ८२० में उत्तर पुराण की पूर्ति (ई, ८७०-१९०)। (ती./३/८, ६ । २ माणिक्यसेन के शिष्य सिद्धान्तवेत्ता। कृति-धन्यकुमार चरित, ग्रन्थ रचना काल चन्देलवशी राजा परमादि देव के समय (ई ११८२)। (ती/१५)। ३. काष्ठा संघ माथुर गच्छ मलय कीर्ति के शिष्य 'रइधु के समकालीन अपभ्रंश कवि । कृति-सावण वारसि विहाण कहा, पक्वइ वय कहा, आयास पंचमी कहा, च दायण वय कहा इत्यादि १५ कथायें। समय-वि.श १५ का अन्त १६ का पूर्व (ई श. १५ उत्तरार्ध) (तो./४/२१६) गुणयोग-दे० योग। गुणवता-(पा पु/७/१०७-११७) वृक्षके नीचे पड़ी एक धीवरको मिली। रत्नपुरके राजा रत्नागदकी पुत्री थी। धीवर के घर पली। भीष्मके पिताके साथ इस शर्त पर विवाही गयी कि इसकी सन्तान ही राज्यकी अधिकारिणी होगी। इसे योजनगधा भी कहते है। 'व्यासदेव' इसी के पुत्र थे। गुणवम-पुष्पदन्तपुराणके कर्ता। समय ई० १२३०। (वराग चरित्र/ प्र.२२/पं. खुशालचन्द) (ती/४/३०६) गुणवत-१. लक्षण र.क श्रा/६७ अनुहणाद् गुणानामाख्यायन्ति गुणवतान्यार्या ६७ -- गुणों को बढ़ानेके कारण आचार्यगण इन व्रतोको गुणवत कहते है। सा.ध/१/१ यद्गुणायोपकारायाणुव्रताना ब्रतानि तत् । गुणवतानि । -यै तीन व्रत अणुव्रतों के उपकार करनेवाले हैं, इसलिए इन्हे गुणवत कहते है। अनर्थदण्डवत ये तीन गुणवत है। कोई कोई आचार्य भोगोपभोग परिमाण बतको भी गुणवत कहते है। [देश ब्रतको शिक्षावतोमे शामिल करते है ] ॥१६॥ गुणश्रेणी-दे० सक्रमण/८ । गुण संक्रमण-दे सक्रमण/७। गुणसेन-१लाडवागड सघकी गुर्वावलोके अनुसार आप वीरसेन स्वामीके शिष्य तथा उदयसेन और नरेन्द्रसेनके गुरु थे। समय वि. ११३० ( ई १०७३) -दे० इतिहास /७/१०। २. लाडबागडस की गुर्वावलोके अनुसार आप नरेन्द्रसेनके शिष्य थे। समय वि ११८० (ई ११२३)-दे० इतिहास/७/१० । गुणस्थान-मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके अन्तर ग परिणामोमे प्रतिक्षण होनेवाले उतार चढावका नाम गुणस्थान है। परिणाम यद्यपि अनन्त है, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिकामोंसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामो तक तथा उससे ऊपर जघन्य वीतराग परिणामसे लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तकको अनन्तो वृद्धियोके क्रमको वक्तव्य बनानेके लिए उनको १४ श्रेणियोमें विभाजित किया गया है। वे १४ गुणस्थान कहलाते है। साधक अपने अन्तर ग प्रबल पुरुषार्थ द्वारा अपने परिणामोको चढाता है, जिसके कारण कर्मों व सस्कारोका उपशम. क्षय वा क्षयोपशम होता हुआ अन्तमे जाकर सम्पूर्ण कर्मोका क्षय हो जाता है, वही उसकी मोक्ष है। गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश गुणस्थान सामान्यका लक्षण । गणरथानोकी उत्पत्ति मोह और योगके कारण होती है।। | १४ गुणरथानोंके नाम निर्देश पृथक् पृथक् गुणस्थान विशेष। -दे० वह वह नाम 'सर्व गुणस्थानोंमें विरताविरत अथवा प्रमत्ताप्रमत्तादि पनेका निर्देश। ऊपर के गुणस्थानों में कषाय अव्यक्त रहती है। -दे० रण/३ अप्रमत्त पर्यन्त सब गुणस्थानोंमें अध.प्रवृत्तिकरण परिणाम रहते है। -दे० करण/४ । चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोहकी और इससे ऊपर चारित्रमोहकी अपेक्षा प्रधान है। सयत गुणरथानोंका श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन । उपशम व क्षपक श्रेणी -दे० श्रेणी। गुणस्थानोंमे यथा सम्भव भाव । -दे० भाव/२ जितने परिणाम है उतने ही गणस्थान क्यों नहीं। गुणस्थान निदेशका कारण प्रयोजन । m * * G २. भेद भ आ /मू /२०८१ जं च दिसावेरमणं अणस्थदंडेहि जं च वेरमणं । देसावगासियं पि य गुणत्रयाई भवे ताई।२०८१। -दिग्नत. देशवत और अनर्थदण्ड व्रत ये तीन गुणवत है। (स.सि /७/२१/३५६/६); (वसु. श्रा/ २१४-२१६)। र.क.श्रा/६७ दिग्बतमनर्थदण्डवतं च भोगोपभोगपरिमाणं । अनुवृहणाद गुणानामारख्ययान्ति गुणवतान्याः । = दिग्वत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोग परिमाण व्रत ये तीनो गुणवत कहे गये है। महा.पु./१०/१६५ दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरति स्यादणुवतम् । भोगोपभोगसख्यानमध्याहुस्तद्गुणवतम् ।१६५। -दिग्वत, देशव्रत और गुणस्थानों सम्बन्धी कुछ नियम गणस्थानोमें परस्पर आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी नियम। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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