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________________ आचार्य २४२ ३. अन्य आचार्य निर्देश स्थानोके पारङ्गत हों, ग्यारह अङ्गोंके धरी हों, अथवा आचारसंगमात्रके धारी हो, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमें पारङ्गत हो, मेरुके समान निश्चल हो पृथ्वी के समान सहनशील हो, जिन्होने समुद्र के समान मल अर्थात दोषोको बाहिर फेक दिया हो, जो सात प्रकारके भयसे रहित हो, उन्हे आचार्य कहते है। भ आ वि ४६/१५४/१२ पञ्चस्वाच रेषु ये बर्तन्ते पगश्च वर्तयन्ति ते आचार्या । पाच आचारोमे जो मुनि स्वयं उद्यक्त होते है तथा दूसरे साधुओको उद्युक्त करते है. वे सामु आचार्य कहलाते है । (द्र. स /मू ५२), (पप्र/टो ७/१३), (द.पा/टो पं जयचन्द २/पृ. १३), (क्रि क.१/१) पध /उ ६५५-६४६ आचार्योऽनादितो रूढे गादपि निरुच्यते । पञ्चा चार परेभ्य स आचारयति सयमी ६४५॥ अपि छिन्ने बते साधी पुन सन्धानमिच्छत । तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति ॥६४६॥ = अनादि रूढिमे और यागमे भो निरुक्तचथसे भी आचार्य शब्दको व्युत्पत्तिकी जाती है कि जो सयमी अन्य संयमियोंसे पाँच प्रकारके आचरो का आचरण कराता है वह आचार्य कहलाता है ॥६४५॥ अथवा जो बन के खण्डित होनेपर फिरमे प्रायश्चित्त लेकर उस बतमे स्थिर होने की इच्छा करनेवाले स धुको अखण्डित व्रतके समान व्रतो के आदेश दान के द्वारा प्रायश्चित्तको देता है वह आचार्य कहलाता है। २. आचार्यके ३६ गुणोंका निर्देश भ आ मू ४१७-४१८ आयारवं च आधारवं च बबहारव पकुठवीय । आयावायवीद सी तहेब उप्पीलगो चेव ॥४१७॥ अपरिस्साई णिव्वाबओ य णिज्जाव ओ पहिद कत्ति । णिज्जत्रण गुण वेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥४१८॥ - आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारबान्, कर्ता, अयापायदर्शनोद्योत, और उत्पीलक होता है ॥४१७॥ आचार्य अपरिखावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान और निर्यापकके गुणोसे परिपूर्ण होते है । इतने गुण आचार्यमे होते है।। बो.पा/टी में उद्धृत १/७२ आचारवान् श्रुताधार, प्रायश्चित्तासनादिद' आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकाऽपि च ॥१॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च। दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टभ जी शारयाशनी'त च ॥२॥ आरागभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान् ज्येष्ठसद्गुण । प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी च तद द्विनिषद्यक. ॥३॥ द्विषट्तपास्तथा षट्चावश्यकानि गुणा गुरो ।-आचारवान्, श्रुताधार, प्रायश्चित्त, आसनादिद आयापायकथो, दोषभाषक, अश्रावक, सन्तोषकारी निर्यापक, ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्ट भाजी, शय्याशन और आरोगभुक् , क्रियायुक्त, वतवान्, ज्येष्ठ सद्गुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, दो निषधक, १२ तप तथा ६ आवश्यक यह ३६ गुण आचार्योंके है। अन ध ६/७६ अष्टावाचारवत्त्वाद्यास्तपांसि द्वादशस्थिते । कल्पा दशाऽवश्यकानि षट्षत्रिशद्गुणा गणे ७६॥ = आचार्य गणीगुरुके छत्तीस विशेषगुण है यथा--आचारवत्व, आधारवत्व आदि आठ गुण और छह अन्तरङ्ग तथा छह बहिरङ्ग मिलाकर बारह प्रकारका तप तथा संयमके अन्दर निष्ठाके सौष्ठव उत्तमताकी विशिष्टताको प्रगट करनेवाले आचेलक्य आदि दश प्रकारके गुण-जिनको कि स्थितिकल्प कहते है और सामायिकादि पूर्वोक्त छह प्रकार के आवश्यक । र क श्रा५पं. सदासुख कृत षोडशकारण भावनामे आचार्य भक्ति ="१२ तप, आवश्यक, ५ आचार, १०धर्म, ३ गुप्ति। इस प्रकार ये ३६ गुण आचार्य के है।" ३. आचार्योंके भेद (गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य, एसाचार्य. इतने प्रकार के आचार्यों का क्थन आगममें पाया जाता है।) ४. अन्य सम्बन्धित विषय * आचार्यके ३६ गुणोके लक्षण -दे. वह वह नाम । * आचार्योका सामान्य आचरणादि -दे साधु । * आचार्य आगममे कोई बात अपनी तरफसे नही कहते -दे. आगम ५/६ । * आचार्यमे कथचित् देवत्व -दे देव 1/१। * आचार्य भक्ति * आचार्य उपाध्याय, साधुमे परस्पर भेदाभेद-दे, साधु ६ । * श्रेण। आरोहणके समय स्वत. आचार्य पदका त्याग हो जाता है। -दे. साधु ६ * सल्लेखनाके समय आचार्य पदका त्याग कर दिया जाता है। -दे. सल्लेखना ४ * गुरु शिष्य सम्बन्ध । -दे. गुरु २ * आचार्य परम्परा। - दे. इतिहास ४ २. गृहस्थाचार्य निर्देश ५ गृहस्थाचार्यका निर्देश पध/उ ६४८ न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम् । व्रतो ___ गृहस्थोको भी आचार्यो के समान आदेश करना निषिद्ध नहीं है। २. गहस्थाचार्यको आचार्यको भॉति दीक्षा दी जाती है पं.ध/3 ६४८ । दोक्षाचार्येण दक्षेव दोयमानास्ति तरिक्रया। -दक्षाचार्य के द्वारा दो हुई दोक्षाके समान हो गृहस्थाचार्योंकी क्रिया होती है। ३. अवती गृहस्थाचार्य नहीं हो सकता पं.ध /उ ६४६,६५२ न निषिद्धो यथाम्नायादवतिना मनागपि । हिसकश्चो देशाऽपि नोपयाज्योऽत्र कारणात् ॥६४६॥ नून प्रोक्त पदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम् । रागिणामेव रागाय ततोऽवश्य निषेधित ॥६५२ = आदेश और उपदेशके विषय में अवती गृहस्थोका जिस प्रकार दूसरे के लिए आम्नाय के अनुसार थोडा-सा भी उपदेश करना निषिद्ध नहीं है, उसी प्रकार किसी भी कारण से दूसरेके लिए हिसाका उपदेश देना उचित नहीं है ।६४६॥ निश्चय करके वीतरागियों. का पूर्वोक्त उपदेश देना भी रागके लिए नही होता है किन्तु सरागियोका ही पूर्वोक्त उपदेश रागके लिए होता है। इसलिए रागियों का उपदेश देनेके लिए अवश्य निषेध किया है ।६५२॥ ३. अन्य आचार्य निर्देश १. एलाचार्यका लक्षण भ आ /म १७७/१६५ अनुगुरोः पश्चाद्दिशति विधत्ते चरण क्रममित्यम्दिक एलाचार्यस्तस्म विधिना। -गुरुके पश्चात् जो मुनि चारित्रका क्रम मुनि और आर्यिकादिकों को कहता है उसको अनुदिश अति एलाचार्य कहते है। २ प्रतिष्ठाचार्यका लक्षण वसु श्रा ३८८,३८६ देस-कुल जाइ सुद्धो णिरुवम-अंगो विशुद्धसम्मत्तो। पढमागिओयकुसनो पइट्टालवस्त्रण विहिविदण्णू ॥३८८॥ सानयगुणोवघेदी उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धी। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ ॥३८६॥ म जो देश कुल और जातिसे शुद्ध हो, निरुपम अंगका धारक हो. विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोगमें कुशल हो, प्रतिष्ठाको लक्षण-विधिका जानकार हो, श्रावकके गुणोसे युक्त हो, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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