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________________ असंख्येय २०७ असत ५ उत्कृष्टयुक्तासंख्यात रा बा ३/३८/५/२०७/६ तत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्ट युक्तासंख्येयं भवति) -उस (जघन्य असंख्येयासख्येय) मे से एक कम कर लेनेपर उत्कृष्ट युक्तासख्येय होती है। ६ मध्यमयुक्तासरख्यात रावा ३/३८/५/२०७/६ मध्यमजघन्योत्कृष्टयुक्तासख्येय भवति । बीच के विकल्प मध्यम युक्तासख्येय होते है। (तीनो भेदोका कथन ति. प४/३१०/ १८० व्याख्या) (त्रि. सा ३६-३७)। ७ जघन्य असख्येयास ख्यात रा वा ३/३८/१/२०७/४ यज्जघन्ययुक्तासख्येय तद्विरलीकृत्य मुक्तावली रचिता। तत्रैकयुक्ताया जघन्ययुक्तासख्येयानि देयानि । एवमेतत् सकृदर्गितमुत्कृष्टयुक्तासंख्येयमतीत्य जघन्यासख्येयासख्येय गत्वा पतितम् । जघन्ययुक्तासख्येयको विरलनकर प्रत्येकपर जघन्ययुक्तासख्येयको स्थापित करे । उनका वर्ग करने पर जो राशि आती है वह जघन्य असल्यास ख्य है। (ज य अस)ज यु असं । ८ उत्कृष्ट असंख्येयासख्यात रा वा ३/३८/५/२०७/७ यज्जवन्यासख्येयासख्येय तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रान्वारान् वर्गितमवर्गित उत्कृष्टासख्येयासख्येय न प्राप्नाति। ततो धर्माधर्म कजोबलोकाफाशरत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरोराणि पडप्येतान्यसख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानापनुभ गन्धाश्थ्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेदरूपाणि चासरूपेपनाकप्रदेशप्रमाणान्युत्सपिण्यवसर्पिणीसमयाश्च कृत्वा उत्कृष्टसब्स सख्ये प्रमतात्य जघन्यपरीतान्त गत्वा पतितम् । तत् एकरूपनोते उत्कृष्टासख्येयासख्येय तद्भाति । - जघन्य असंख्येयासख्प्रेयका पिर ननकर पूर्वोक्त विविसे तन बार वर्गित करनेपर भी उत्कृष्ट असख्येयासख्येय नही होता यदि(क-ज.अस अ )ज अस अस तो ख' = क * और गख ख मा उत्कृष्ट असंख्येयासख्येय से कुछ कम । इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरोर जीव बादरनिगोत शर।र ये छहो असख्येय स्थिति-- बन्धाध्यवसाय स्थान, योगके अविभागप्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी व अव नर्पिगा कनके सनय, इस सबोको जाने पर फिर तीन बार वर्गित सवर्गित करने पर उत्कृष्ट सरव्येयासख्येयसे एक अधिक जघन्य परीतानन्त होता है। इसमे से एक कम करनेपर उत्कृष्ट असख्येयासख्येय होता है। अर्थात- (ग+राशि+४राशि (ग+६ राशि+४ राशि) == 'प' फ=पपन-फफ ..ज, पर'. अन./ (दे अनन्त) उत्कृष्ट असम्येयासख्येय-ब-१। ९ मध्यम असख्येयासंख्यात रा बा ३/3८/५/२०७/१२ मध्यममजघन्योत्कृष्टा सख्येयासंख्येय भवति । -मब्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट असख्येयासंख्येय हैं। (तीनो भेदोके लक्षण ति प ४/३१०/१८१-१८२); (त्रि सा ३७-४५) । * आगममे 'असंख्यात' की यथास्थान प्रयोग विधि ___ दे. गणित I/१/६ असंख्येय-दे अस ख्यात ह असंख्यासंख्येय-दे. अस ख्यात १/७ असंज्ञी-दे संज्ञी असंचार-दे सचार असंदिग्धरा बा ५/५/५६४/१८ स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर चासदिग्धम् ।-जामें अर्थ स्पष्ट होय और अधर व्यक्त होय सो अस दिग्ध कहिये । (चा सा ६७/१)। असंप्राप्तसृपाटिका-दे सहनन असंबद्ध प्रलाप-दे वचन आज असंभव- लक्षणका एक दोष-दे लक्षण, २. आकाशपुष्प आदि अस भव वस्तुएँ-दे असत् । असंभ्रांत-प्रथम नरकका सातवाँ पटल-दे, नरक। ५/११ व रत्नप्रभा। असमार-यो सा/अ८/८२,८६) बुद्धिमक्षाश्रिया तत्र ज्ञानमार्गम पूर्वक । तदेव सदनुष्ठानमसंमोह विदो विदु ॥४२॥ सन्त्यसंमोहहेतूनि कर्माण्यत्यन्तशुद्धित । निर्वाणशर्मदायीनि भवातीताध्वगामिनाम् ॥८६॥ - इन्द्रियाधीन बुद्धिको जो ज्ञान आगमपूर्वक व सदनुष्ठान (आचरण) पूर्वक होता है, वह ज्ञान ही असंमोह है ।।२। असंमोहके हेतु अत्यन्त शुद्व वे कर्म है जो कि भवसे अतीत निर्वाण सुखको देनेवाले है। असंयतसम्यग्दृष्टि-दे. सम्यग्दृष्टिा५ । असंयम- सं प्रा. १११३७ जोवा चउदसभेया इदियविसया य अट्ठबीस तु । जे तेसु णेय विरया असजया ते मुणेयव्या॥१३७1-जीव चौदह भेद रूप हैं और इन्द्रियोके विषय अट्ठाईस है। जीवघातसे और इन्द्रिय विषयोंसे विरत नहीं होनेको असयम कहते हैं । जो इनसे विरत नही हैं उन्हे असंयत जानना चाहिए। (ध. १/१,१, १२३/१६४/३७३) (गो. जी./मू. ४७८) (प सं./सं. २४७-२४८) । रा वा २/६/६/१०६ चारित्रमोहस्य सर्बधातिस्पर्धकस्योदयाव प्राण्युपद्यातेन्द्रियविषये द्वेषाभिलाष निवृत्तिपरिणामरहितोऽसंयन औदयिक 1 चारित्रमोहके उदयसे होनेवाली हिंसादि और इन्द्रियविषयोमें प्रवृत्ति असयम है । (स. सि. २/५/१५६/८)। प्रसा/त.प्र/२२१ शुद्धात्मरूपहिंसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य । - शुद्धा___त्मस्वरूपकी हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है, ऐसा असंयम...। पं. ध उ/११३५ वताभावात्मको भावो जीवस्यासयमो यत । -बतके अभावरूप जो भाव है वह असयम माना गया है। २. इन्द्रिय व प्राण असयम ध८/३.६/२१/२ असजमपच्चओ दुविहो इदियासंजमपाणासजमभेएण । तत्य इदियास जमो छविहो परिस-रस-रूब-गंध-सद्द णोइ दियासजमभेएण। पाणास जमो वि छवि हो पृढवि-आउ-तेउ-बाउवणप्फदितसासजमभेएण। -असयम प्रत्यय इन्द्रियासंयम और प्राणासंयमके भेदसे दो प्रकारका है। इन्द्रियासंयम स्पर्श रस रूप गन्ध शब्द और नोइन्द्रिय जनित असयम के भेदसे छह प्रकारका है। प्राण असयम भी पृथिवी. अप् तेज, वायु, वनस्पति और त्रस जीवोंकी विराधना से उत्पन्न असयमके भेदसे छह प्रकारका है। असंसार-दे. संसार। असग-(भ, आ./प्रा २ प्रेमीजी)। शक सं०६१० (ई०६८८) के एक ___ महाकवि । आप नागनन्दि आचार्यके शिष्य थे। आपने वर्द्धमान चारित्र व शान्तिनाथ पुराण लिखे है। (ती/४/११) । असत्-स. सि. १/३२/१२८/७ असदाविद्यमानमित्यर्थः ।-असतका अर्थ अविद्यमान है। न वि./वृ १/४/१२१/७न सदिति विजातीयविशेषव्यापकत्वेन न गच्छतीत्यसत । जो विशेष व्यापक रूपसे प्राप्त होता हो सो असत है। २ आकाशपुष्पादि असंभव वस्तुओंका कथंचित् सत्त्व रा, वा २/८/१८/१२१/२२ कर्मावेशवशात नानाजातिसंबन्धमापन्नवतो जीवतो जीवस्य मण्डूकभावावाप्तौ ततव्यपदेशभाज पुनर्युवतिजन्मन्यवाप्ते य शिखण्डक' स एवायम्' इत्येक्जीवसमन्धित्वात मण्डूकशिखण्ड इत्यस्ति । एवं बन्ध्यापुत्र-शश विषाणादिष्वपि योज्यम् । आकाशकुसुमे क्थम् । तत्रापि यथा वनस्पतिनामकर्मोदयापादित विशेषस्य वृक्षस्य जीव पद्धगलसमुदायस्य पुष्पमिति व्यपदिश्यते, अन्यदपि पुद्गलद्रव्य पुष्पभावेन परिणतं तेन व्याप्नत्वात् । एबमाका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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