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________________ असंख्यात ४ अप्रदेशासंख्यात ५.३/९.२.१७/१२/१ ज त अपने साज जोगापोर्ट - एगो जोवपदेसो । अथवा सुण्णेय भगो, असखेज्जपज्जायाणमाहारभूद - अपएस एगदव्याभावादो। योग विभाग में जो अविभास प्रतिच्छेद बराला है. उनकी अपेक्षा जीवका एक प्रदेश प्रदेशासा है अपना असख्यातमें उसका यह भेद शून्य रूप है, क्योंकि, असंख्यात पर्यायोके आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्यका अभाव है । कुछ आत्माका एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता, क्योंकि, एक प्रदेश जीव द्रव्यका अवयव है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर जीवका एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योकि, अवयवोसे भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है । ५ एका संख्यात घ. ३/१,२,१५/१२५/३ ज त एयासखेज्जयं त लोयायासस्स एक दिसा । दो । सेढिगारेण लोयस्स एगदिस पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच संखाभावादो। लोकाकाशको एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एका सख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशोंकी श्रेणी रूपसे लोकाकाकी एक दिशा देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाको अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती । ६ उभयासंख्यात ध. ३/१,२,१५/१२५/४ ज तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ, पेमाणे पदेसगणण पहुच संखाभावादी लोका काशकी उभय विद्याओं अनय दो दिशाओोमें स्थित प्रदेश पक्ति उभयसंख्यात है, क्योंकि, लोकाकाशके दो ओर देखनेपर प्रदेशोकी की अपेक्षा वे सख्यातीत है । ७ विस्तारासंस्थात घ. ३/१२.१३/१२/७ विचारासंखेणं त होगागासपदर, लोगपदरागारपदेसगणण पडुच्च संखाभावादी । प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाशके प्रदेशोकी गणना की अपेक्षा संख्यातीत है। ८ सर्वासंख्यात भ. ३/१.२.१५/१२५६ पणागारे लोग पैवमोष पदेसगगध पच संखाभावादो । ज त सव्वासखेज्जयं त घणलोगो । घनलोक सर्वासख्यात है, क्योंकि, घनरूपसे लोकके देखनेपर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा ने संख्यातीत है। ९ गणनासंख्यात १ जघन्य परीतासंख्यात रा. बा. २/३८/५/२०६/१७ रूयमाणामार्थ जम्बूद्दीपतुल्यायामविष्कम्भ' योजनासहस्रावगाह' बुद्धया कुशूलाश्चत्वार कर्तव्याशलाका प्रतिशलाका - महाशला काव्यास्त्रयोऽवस्थिता' चतुर्थोऽनवस्थितः अत्र हौ सर्प पो निमन्यमेतत्संख्येयमाणम् समनवस्थितं सर्प पूर्ण गृहीत्वा कश्चिद्रदेव एकैकपकेक स्मिन् द्वीपे समुद्र प्रक्षिपेतेन विधिना सरिक्त रिसइति शलाका एक प्रक्षिपेत्यत्र अन्य निक्षितस्तमधिकृत्वा अनवस्थित कुशूलं परिकल्प्य सर्षपै पूर्णं कृत्वा ततः परेषु द्वीपसमुद्रेष्वेकैक सर्षपप्रदानेन स रिक्त कर्त्तव्यः । रिक्त इति शलाकाकुशले पुनरेक प्रक्षिपेत् । अनेन विधिना अनवस्थितकुशूलपरिवर्धनेन शलाकाकुशूले परिपूर्णे पूर्ण इति प्रतिशलाकाकुले एकः सर्पयो प्रय एवं तावत्कथ्यो यामतिशला परिपूर्णो भवति परिपूर्णे इति महाले एक सर्प यः सोऽपि तथैव परिपूर्ण । एवमेतत् चतुर्ष्वपि पूर्णेषु उत्कृष्टसख्येयमतोत्य जघन्यपरीता - संख्येये गयेक रूपं पतितम् संख्ये प्रमाणके ज्ञानके लिए जम्बू • Jain Education International २०६ असंख्यात द्वीप के समान १ लाख योजन लम्बे-चौड़े और एक योजन गहरे शलाका प्रतिशलाका महाशलाका और अनवस्थित नामके चार कुण्ड बुद्धिसेव करने चाहिए। अनवस्थित कुण्डमें दो सरसो डालने चाहिए। यह जघन्य संख्याका प्रमाण है। उस अनवस्थित कुण्डको सरसो से भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसोको क्रमश एक-एक द्वीप सागर में डालता जाय। जब वह कुण्ड खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थित कुण्डका अन्तिम सरसो गिरा था उतना वडा अनवस्थित कुण्ड कल्पना किया जाय। उसे सरमोसे भरकर फिर उससे आगे के द्वीपो में एक-एक सरसो डालकर उसे खाली किया जाय। जब खाली हो जाय तब शलाका कुण्डमें दूसरा सरसो डाले। इस प्रकार अनवस्थित कुण्डको तब तक बढाता जाय जब तक शलाका कुण्ड सरसोंसे न भर जाय । जब शलाकाकुण्ड भर जाय तब एक सरसो प्रतिशलाका कुण्ड में डाले इस तरह उसे भी भरे। जब प्रतिशलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुण्डमें डाले । उक्त विधिसे जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है, वह उत्कृष्ट संख्यातसे एक अधिक जघन्य परीतासं ख्यात है । = रा. वा. हि / फुट नोट-कुल सरसोका प्रमाण आठ सरसों - १ यव: आठ यव - १ अंगुल, २४ अंगुल १ हाथ ४ हाथ - १ धनुष, २००० धनुष - १ कोस; ४ कोस = १ व्यवहार योजन ५०० व्यवहार योजन = १ बडा योजन | अब १००,००० योजन विष्कम्भ के १००० योजन गहरे कुण्डका घन प्रमाण = (५०,०००) २ x २२/७×१००० = ७५x१०१३ यो० । १ घन योजनमें सरसोका प्रमाण = (८x८४२४४४४२०००x४४५००) ३ ७५१० १ - १६०६१२०६२६६१६८१० ११ कुण्डके ऊपर शिखायें सरसों - १७६६२००८४४५५१६३६ – ३६ ३६ ३६ ३३ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३१ प्रथम कुण्डमे कुल सरसो १६६७१९२६३८४ ५१३१६-३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३६ ३११ (४५ अक्षर) अन्तिम कुण्ड में सरसोका प्रमाण ४५ अक्षर असंख्यात् । २ उत्कृष्ट परीतासख्यात १३ | रा वा ३/३८/५/२०७/२ जघन्ययुक्तासंख्येय गत्वा पतितम् । अत एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टपरीतास ख्येय भवति । = - जघन्य युक्तसख्यात होता है । (दे. आगे स ४ ) उसमें एक कम करने पर उत्कृष्ट परोतासंख्यात होता है। ३ मध्यम परीतासंख्यात बीच के रा. बा ३/१८/५/२००/३ मध्यमजघन्योत्कृष्टपरीतासंख्येयम्। वि अजयकृष्ट परीता सस्येय है (तीनों भेदोका कथन [वि. प ४ / ३०६ / प १७६ व्याख्या) (त्रि. सा. १४-३६) ४ जघन्य युक्तासख्यात राका २/१८/५/२०६/१३ यजपन्वपरीतास स्येव तद्विरलीकृत्य मुक्ताबलीकृता अत्रैकैकस्यां मुक्ताया जधन्यपरीतासंख्येय देयम् । एव गितम् प्राथमिक मुक्तावलीमपनीय यान्येकस्यां मुक्तायां अक्षम्य परोतासंख्येयानि दत्तानि तानि पिण्डव मुक्तावली कार्या ततो यो जधन्यपरीतास स्पेयर्स पिण्डाझिम शशि स देय एकैकस्य मुक्तायाम् एवमेतरसवर्गितम् उत्कृष्टपता येतीय जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम् । जघन्य परीतासंख्येयको फैलाकर मोती के समान जुदे-जुदे रखना चाहिए। प्रत्येकपर एक एक जघन्य परीतासंख्येयको फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे । जो जघन्यपरीतासख्येय मुक्तावलीपर दिये गये थे उनका गुणाकार रूप एक राशि बनावे। उसे विरलनकर उसपर उस वर्गित राशि को दे । उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उकृत्ष्ट परीतासख्येयसे एक अधिक जघन्य युक्तासख्यात होती है । (यदि क= | - (ज. ज. परी असं परो. असं.) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only क = तो क (ज. यु. अस) । www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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