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________________ २०८ असत्य शेनातिव्याप्तत्व समान मिति तत्तस्यापीति व्यपदेशो युक्त । अथ तत्कृतोपकारापेक्षया तस्येत्युच्यते, आकाशकृतावगाहनोपकारापेक्षया कथ तस्य न स्यात् । वृथात् प्रच्युतमप्याकाशान्न प्रच्यवते इति नित्य तत्सम्बन्धि । अथ अर्थान्तरभावात्तस्य न स्यादिति मतम्, वृक्षस्यापि न स्यात् । -वह सत् भी सिद्ध हो जाता है। यथा--कोई जीव मेंढक था और वहा जाय जब युवतीको पर्यायको धारण करता है तो भूतपूर्वनयकी अपेक्षा उस युवतीको भी हम मेंढक कह ही सकते है। और उसके युवतोपर्यायापन्न मण्डूककी शिखा होनेसे मण्डूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। इसी प्रकार वन्ध्यापुत्र व शशविषाणादिमें भी लागू करना चाहिए। प्रश्न-आकाशपुष्पमें कैसे लागू होता है । उत्तर-वनस्पति नामकर्मका जिस जीवके उदय है। वह जोव और पुदगल का समुदाय पुष्प कहा जाता है। जिस प्रकार वृक्षके द्वारा व्याप्त होनेसे वह पुष्प पुदगल वृक्षका कहा जाता है, उसी तरह आकाशके द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाशका क्यों न कहा जाय। वृक्षके द्वारा उपकृत होनेके कारण यदि वह वृक्षका कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकारको अपेक्षा उसे आकाशका भी कहना चाहिए। वृक्षसे टूटकर फून गिर भो जाय पर आकाशसे तो कभो भो दूर नहीं हो सकता, सदा आकाशमें हो रहता है। अथवा मण्डूकशिखण्डविषयक ज्ञानका विषय होनेसे भी (ज्ञान नयकी अपेक्षा) मण्डूक शिखण्डका सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए। रा बा.४१८/१०/४६७/३२ खरो मृत गौर्जात स एव जोब इत्येकजीवविवक्षायां खरव्यपदेशभाजो जीवस्य गोजातिसक्रमे विषाणोपलब्धे. अर्थवरविषाणस्यापि जात्यस्तित्वसद्भावात उभयधर्मासिद्धता। - कोई जीव जो पहिले वर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सीग निकल आये। ऐसी दशामें एक जीवकी अपेक्षा अर्थरूपसे भी 'खरविषाण' प्रयोग हो ही जाता है । (स० भ० त..५४/१) * असत्का उत्पाद असम्भव है-दे० सत् असती पोष कर्म-दे सावद्य ।। असत्य १ प्राणिपीडाकारी वचन भ आमू ८३२-८३३ परुस कडुय वयण वेर कलह च भय कुणइ। उत्तासणं च हीलणमपियवयण समासेण ॥८३२॥ हासभयलोहकोहप्पदोसादोहिं तु मे पयत्तेण । एव असतवयणं परिहरिदव्व विसेसेण ॥८३३॥ - मर्मच्छेदी परुष वचन, उद्वेगकारी कटु बचन, वैरोत्पादक, कलहकारी, भयोत्पादक, तथा अवज्ञाकारी बचन इस प्रकारके अप्रिय वचन है। तथा हास्य भीति लोभ क्रोध द्वष इत्यादि कारणोसे बोले जानेवाले वचन, सब असत्य भाषण है। हे क्षपक । उसका तू प्रयत्नसे विशेष त्याग कर। स सि ७/१४/३५२/६ न सदप्रशस्तमिति यावत । मृतं सत्य, न ऋतमनृतम् । किं पुनरप्रशस्तम्। प्राणिपीडाकर यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषय वा अविद्यमानार्थ विषय वा । उक्त च प्रागेवाहिंसावतपरिपालनार्थमितरबतम् इति। तस्माद्धिसाकर वचोऽनृतमिति निश्चेयम् । m सत शब्द प्रशंसावाची है। जो सत नही वह असत् है। असत्का अर्थ अप्रशस्त है। ऋतका अर्थ सत्य और जो ऋत नहीं है वह अनृत है। प्रश्न-अप्रशस्त किसे कहते है। उत्तर - जिससे प्राणियोंको पीडा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं । भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थको विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थको विषय करता हो । यह पहिले ही कहा है कि दोष बत अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए है। इसलिए जिससे हिसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए। (रा बा ७/१४/३-४।५४२/१) चा सा. ६२/२) रावा.७/१४/५/५४२/११ असदिति पुनरुध्यमाने अप्रशस्तार्थ यत् तत्सर्व मनृतमुक्त' भवति । तेन विपरीतार्थस्यप्राणिपीडा करस्य चानृतत्व मुपपन्न भवति- 'असत' कहनेसे जितने अप्रशस्त अर्थवाची शब्द हैं, वे सब अनृत कहे जायेगे। इससे जो विपरीतार्थ वचन प्राणिपीडाकारी हैं वे भी अनृत है । (पु सि उ ६५)। श्लो.वा /मू ७/१४ स्वपरसंतापकरणं यद्वचोऽसिना। यथा दृशार्थमप्यत्र तदसत्य विभाव्यते। -जो वचन अपनेको तथा दूसरेको कष्ट पहुँचानेवाला हो वह वचन 'जैसा देखा तैसा बतानेवाला' होनेपर भी असत्य है। ध १२/४,२,८,३/२७६/४ किमसतवयणं। मिच्छत्तासजमकसाय-पमादुट्ठावियो वयणकलापो।-प्रश्न-असत वचन किसे कहते है। उत्तरमिथ्यात्व, असयम, कषाय और प्रमादसे उत्पन्न वचन समूहको असत वचन कहते है। २ असत्यका अर्थ अलीक वचन त.सू.७/१४ असदभिधानमनृतम् । असत वचनको अनृत कहते है। स सि ७/१४/३५२.२ असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम् । जो पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत असत्य कहलाता है। रावा,७/१४/१/५४२/४ भूतनिह्नवेऽभूतोद्भावने च यदभिधानं तदेवानृत स्यात्, भूतनिहवे नास्त्यात्मा नास्ति परलोक इति । अभूतोद्भावने च श्यामाकतन्दुलमात्रमात्मा अङ्ग ठपर्वमात्र सर्वगतो निष्क्रिय इति च। -विद्यमानका लोप तथा अविद्यमानके उद्भावन करनेवाले 'आरमा नहीं है', 'परलोक नहीं है'. 'श्यामतदुलके बराबर आत्मा है' 'अगूठेके पोर बराबर आत्मा है', 'आत्मा सर्वगत है', 'आरमानिष्क्रिय है' इत्यादि वचन मिथ्या होनेसे असत्य है । (चा,सा १२/१) सा ध ४/३६ कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासादपलापवत ।- कन्या अलीक, गौ अलीक, कूटसाक्षी, न्यासापलाप करना असत्य है। ३. असत्यके भेद भ. आ/मू ८२३ परिहर असतवयण सव्वं पि चेदुविधं पयत्तेण । - असत्य वचनके चार भेद है, जिनका त्याग है क्षपक । तु प्रयत्न पूर्वक कर । ध.१/१,१,२/११७/६ द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम् । -द्रव्य क्षेत्र काल तथा भावकी अपेक्षा असत्य अनेक प्रकारका है। पु.सि उ हर तदनृतमपि विज्ञेय तदभेदा चत्वार ॥११॥ - उस अनृतके चार भेद है। १. सत्प्रतिषेध रूप असत्य भ.आ/मू ८२४ पढम असतवयण सभूदत्थस्स हीदि पडिसेहो । णस्थि णरस्स अकाले मुञ्चत्ति जधेवमादीयं ॥८२४॥-अस्तित्त्वरूप पदार्थका निषेध करना, यह प्रथम असत्य वचनका भेद है-जैसे 'मनुष्योंको अकालमें मृत्यु नहीं है' ऐसा कहना। पुसि उ १२ स्वक्षेत्रकालभावै सदपि हि यस्मिन्निषिद्धयते वस्तु । तत्प्रथममसत्य स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र १२॥ -जिस वचनमें अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, करके विद्यमान भी वस्तु निषेधित की जाती है, वह प्रथम असत्य होता है, जैसे यहाँ देवदत्त नहीं है। २. अभूतोद्भावन रूप असत्य भ आ/मू ८२६ जं असभूदुब्भावणमेद विदियं असंतवयण तु। अस्थि सुराणमकाले मुञ्चत्ति जहेवमादीयं ॥८२६॥ जो नही है उसका है कहना यह असत्य वचनका दूसरा भेद है. जैसे देवोकी अकाल मृत्यु नहीं है, फिर भी देवोकी अकाल मृत्यु बताना इत्यादि । पु.सि उ १३ असदपि हि वस्तुरूप यत्र परक्षेत्रकालभविस्तै उदभाव्यते द्वितीय तद नृतमरिमन् यथास्ति घट । --जिस वचनविष पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके अविद्यमान भी वस्तुका स्वरूप प्रगट किया जाता है, वह दूसरा असत्य होता है। जैसे-यहाँ पर घडा है। ३. अनालोच्य रूप असत्य भ.आ./मू.८२८ तदियं असंतवयर्ण सत जं कुण दि अण्णजादीग । अविचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जहेवमादीयं ।-एक जातिके सत्पदार्थ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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