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________________ अष्टपुत्र २०५ असंख्यात अष्ट पुत्र भगवान् वीरके तीर्थ में हुए एक अन्तकृत केवली-दे. अन्तकृत केवलो। अष्ट प्रवचन माता-दे. प्रवचन । अष्ट मंगल द्रव्य-दे. चैत्य चैत्यालय १/११ । अष्ट मध्यप्रदेश-१. जोवके आठ मध्यप्रदेश । दे.-जीव/४ २. लोलके पाठ मध्य प्रदेश-दे. लोक/२ । अष्टम पृथिवी-दे. मोक्ष/१ । | अष्टम भक्त-तीन उपवास-दे. प्रोषधोपवास/१ । अष्टमो व्रत-वत-विधान संग्रह/पृ. १२३---कुल समय ८ वष : कुल उपवास-१६६ विधि प्रतिमासकी प्रत्येक अष्टमीको उपवास करे । इस प्रकार आठ वर्ष को १६२ अष्टमी तथा दो अधिक मासों की ४ अष्टमी । कुल १६६ अष्टमियों के १६६ उपवास करे। जाप्यमन्त्रओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धाधिपतये नमः। इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। २. गन्ध अष्टमी व्रत; निःशल्य अष्टमी व्रत; मनचिन्तोअष्टमी व्रतदे० वह वह नाम। अष्ट मूलगुण-दे, श्रावक/४ । अष्टशतो-आचार्य समन्तभद्र (ई. श. २) कृत आप्तमीमांसा या देवागमस्तोत्रपर ८०० श्लोक प्रमाण आ. अकलंक भट्ट (ई. श.७) द्वारा रचित न्यायपूर्ण व्याख्या । (ती. २/३१७) । अष्टशुद्धि-दे, शुद्धि अष्टसहस्री-आ. समन्तभद्र (ई. श. २) द्वारा रचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्रको एक वृत्ति अष्टशती नामको आ. अकलंक भट्टने रची थी। उसपर ही आ, विद्यानन्दने (ई०७७५-८४०) ८००० श्लोक प्रमाण वृत्ति रचो! यह कृति इतनो गम्भोर व कठिन है कि बड़े-बड़े विद्वान् भो इसे अष्ट सहस्रोको बजाय कष्टसहस्रो कहते हैं । (ती. २/३६४)। अष्टांक-क.पा५७२/३३३/८ कि अढ'के णाम । अणंतगुणवड्ढो । कथमे दिस्से अळंक तण्णा। अहमकाणमणतगुणवड्ढो त्तिदुवणादो । -- प्रश्न-अष्टांक किसे कहते हैं ! उत्तर-अनन्तगुणवृद्धिको । शंका-अनन्तगुण वृद्धिको अष्टांक संज्ञा कैसे है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि आठके अंकको अनन्तगुणवृद्धिरूपसे स्थापना की गयी है । (अर्थात आठका अंक अनन्तगुणवृद्धिकी सहनानी है।) (ध.१२/ ४,२,७,२१४/१७०/७) (ल.सा./जो.प्र./४६/७६) गो. क. भाषा/५४६/२) गो.जी./जी.प्र. ३२५/६८४) । ध, १२/४.२,७,२०२/१३१/६ कि अदु'कं णाम । हेठिमुबक सबजीव- रासिगा गुणिदे ज ल द्ध तेत्तिपमेतेण हे ट्ठिमुखं कादो जमहियं ठाणं • तमटकं णाम । हेट्ठिमुन्व करूवा यिसव्वजीवरासिणा गुणि दे अळंकमुप्पज्ज दि त्ति भणि होदि। प्रश्न-अष्टांक किसे कहते हैं ! उत्तर-अघस्तन उर्वकको सब जोवराशिसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्रसे, जो अधस्तन उर्व कसे अधिक स्थान है उसे अष्टांक कहते हैं। अधस्तन उबंकको एक अधिक सब जोवराशिसे गुणित करने पर अष्टांक उत्पन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है। अष्टांग निमित्तज्ञान-दे. निमित्त/२ 1 इस ज्ञानके पृथक-पृथ अंग-दे. वह वह नाम। अष्टांग हृदयोद्योत- आशाधर जो। (ई ११७३-१२५३) द्वारा विरचित एक संस्कृत काव्य ग्रन्थ । अष्टाह्निक पूजा-दे० पूजा/१ । अष्टाह्निक व्रत-बत विधान संग्रह/पृ० ३६ व क्रियाकोश) । गणना-इस वतकी पाँच मर्यादाएँ हैं-५१,२४,१५,६,३ अष्टाझिकाएँ अर्थात १७ वर्ष, ८ वर्ष, ५ वर्ष, ३ वर्ष व १ वर्ष पर्यन्त किया जाता है। प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक व फाल्गुन मासके शुक्ल पक्षमें ८-१५ तक ८ दिन अष्टालिका पर्वके हैं। विधि-भी तीन प्रकार हैउत्कृष्ट, मध्यम व जघन्य । उत्कृष्ट-सप्तमीके पूर्वार्ध भागमें एकाशन; ८.१५ तक ८ दिन उपवास; पड़वाकी दोपहर पश्चाव पारणा । मध्यम-सप्तमीको एकाशन; ८ को उपवास; ६ को पारणा; १० को भात व जल; ११ को एक बार अल्प आहार; १२ को पूरा भोजन; १३ को जलसहित नीरस एक अन्नका भोजन; १४ को भातं व मिर्च व जल: १५ को उपवास और पडिमाको पारणा। जघन्य-सप्तमीको दापहर पश्चात्से पडिमाको दोपहर तक पूर्ण शोलका पालन, धर्मध्यान सहित मन्दिर में निवास और मौन सहित प्रतिदिन अन्तराय टालकर भोजन । जाप्यमन्त्र- प्रत्येक दिन अपने-अपने दिन वाले मन्त्रको त्रिकाल जाप्य करनी। ८मीको-“ओं ह्रीं नन्दीश्वरसंजाय नमः ।"मो को-“ओं ह्रीं अष्टमहाविभूतिसंज्ञाय नमः।" १०मी को-"ओं ह्रीं त्रिलोक सारस ज्ञाय नमः।" ११ दशी को-"ओं ह्रीं चतुर्मखसंज्ञाय नमः ।" १२ दशोको-“ओं ह्रीं महालक्षणसंज्ञाय नमः ।" १३ दशोको-“ओं ह्रौं स्वर्ग सोपानसंज्ञाय नमः ।" १४ दशोको-“ओं ह्रौं सर्वसम्पत्तिसंज्ञाय नमः ।" पूर्णिमाको-“ओं ह्रीं इन्द्रध्वजसंज्ञाय नमः।" अष्टापद-म.पू. २७/७० शरभः खं सभुत्पत्य पतन्नुत्तापितोऽपि सन। नैव दुःखासिका वेद चरण पृष्ठप्रतिभिः ।७। = यह अशापद आकाशमें उछलकर यद्यपि पीठ के बल गिरता है. तथापि पीठपर रहनेवाले पैरोंसे यह दुःखका अनुभव नहीं करता। भावार्थ- अष्टापद एक जंगली जानवर होता है। उसकी पीठ पर चार पाँव होते हैं। जब कभी वह आकाश में छलांग मारनेके पश्चात् पीठ के बल गिरता है तो अपने पीठपर-के पैरोंसे सँभल कर खड़ा हो जाता है। असंकुचित विकासत्व शक्ति-स.सा /आ./परि शक्ति सं. क्षेत्र कालानबच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असंकुचितविकासत्वशक्तिः॥१३॥ का क्षेत्र और कालसे अमर्यादित ऐसी चिद्विलास असंकुचितविकासत्वशक्ति ॥१३॥ असंक्षेपाद्धा-दे, अद्धा । असंख्यात-स.सि.२/३८/१६२/६ संख्यातीतोऽसंख्येयः । - संख्यातोतको असंख्येय कहते हैं । (रा.वा. २/३८/२/१४७/३१) *संख्यात असंख्यात व अनन्तमें अन्तर दे. अनन्त/२ । २. असंख्यातके भेद ध.३/१,२,१५/१२३-१२६ संक्षेपार्थ ।" नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रादेशिक, एक, उभय, विस्तार, सर्व और भाव इस प्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकार का है। (नाम स्थापना द्रव्य व भाव असं ख्यातों के उत्तर भेद निपों बत जानना) गणना संरख्यात तीन प्रकार है परीतासंख्यात, युक्तासंरख्यात और संख्यातासंख्यात। ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तोन तीन प्रकारके हैं। (ति.प. ४/३१० को व्यारण्या) (रा.वा. ३/३८/५/२०६/३०) * नाम स्थापना द्रव्य व भाव-दे. निक्षेप । ३. शाश्वतासंख्यात ध.३/१,२,१५/१२४ धम्मस्थियं अधम्मत्थियं दव्यपदे सगणण' पड्डुच्च एगसरूवेण अवट्ठिद मिदि कट्टु सस्सदासंखेज्ज । -धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशोंकी गणनाके प्रति सर्वदा एक रूपसे अवस्थित हैं, इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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