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________________ अनुयोग ५. चारों अनुयोगोकी कथचित् मुख्यता गौणता १ प्रथमानुयोगको योणता मो. मा प्र / ८ /६/४०१ / ६ ग्रहाँ (प्रथमान् योगमें) उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसे याको प्रमाण कोजिये है । याकौ तारतम्य न मानि लेना । तारतम्य करणान योग विषै निरूपण किया है सो जानना । महुरि प्रथमानुयोग उपचाररूप कोई धर्मका जग भने सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है। - ( जैसे ) निश्चय सम्यक्त्वका तौ व्यवहार विषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्वके कोई एक अग सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्वका उपचार किया, ऐसे उपचार करि सम्यक्त्व भया कहिए है। २. करणानुयोगकी गौणता मोमा / ८ /७/४०४/१५ करणान योग विषै व्यवहार नयकी प्रधानता लिये व्याख्यान जानना, जातै व्यवहार बिना विशेष जान सके नाहीं । बहुरि कही निश्चय वर्णन भो पाइये है । मो.मा.पcio/zoor करणानुयोगविये भी कहीं उपदेशकी मुख्यता लिए व्याख्यान हो है, ताकौ सर्वथा ते से ही न मानना । मोम ca/०६/२४ करणानुयोग वियें तो यथार्थ पदार्थ जनावनेका मुख्य प्रयोजन है, आचरण करावने की मुख्यता नाहीं । ३ चरणानुयोगकी गौणता मोमा /८/८/४०७/१६ चरणानुयोगविषै जैसे जीवनिकै अपनी बुद्धिगोचर धर्मका आचरण होय सो उपदेश दिया है। तहाँ धर्म तौ निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, सोई है ताके साधनादिक उपचार धर्म है, सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि नाना प्रकार उपचार धर्म के भेदादिकका या विषे निरूपण करिए है । 1 ४ द्रव्यानुयोगकी प्रधानता मोमा १८/१५/२०/२ मोहमार्गका मूल उपदेश तो यहाँ (दयानुयोग विधे) ही है। ६. चारों अनुयोगोंका मोक्षमार्ग के साथ समन्वय १. प्रथमानुयोगका समन्वय मी मा /८/६/४००/१६ प्रश्न - (प्रथमानुयोग में) ऐसा झूठा फल दिखावना तो योग्य नाहीं, ऐसे कथनको प्रमाण कैसे कीजिए 1 उत्तर - जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म विषै न लागें, पाप तैं न डरें, तिनिका भला करनेके अर्थि ऐसे वर्णन करिए है । मो मा प्र./८/१२/४२४/१५ प्रश्न (प्रथमानुयोग ) रामादिका निमित्त होय, सो क्थन हो न करना था। उत्तर सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्य कथम विषैला नाहीं, ताते जेसे को बतासा आश्रय ओपच दीजिये, तेसे सरागी भोगादि कथन के आश्रय धर्मवि रुचि कराई है। २ करणानुयोगका समन्वय मो मा प्र./८/१३ / ४२७/१३ प्रश्न -द्वीप समुद्रादिकके योजनादि निरूपे जिनमें कहा सिद्धि है ? उत्तर- तिनको जाने कि तिनिविष इष्ट अनि बुद्धि न होय तें पूर्वोक्त सिद्धि हो है प्रश्न तो जिसतें किन प्रयोजन नाहीं, ऐसा पाषाणादिकको भी जाने यहाँ इट अनिष्टपनों न मानिए है, सो भी कार्यकारी भया' उत्तर सरागी जीव रागादि प्रयोजन बिना काइको जाननेका उद्यम न करें जो स्वयमेव उनका जानना होय तो तहाँते उपयोगको छुडाया ही चाहे है। यहाँ उद्यमकरि द्वीप समुद्रादिकको जाने है, तहाँ उपयोग लगाने है। सो रागादि घटे ऐसा कार्य हो है बहुरि पाषाणादिवि लोकका कोई प्रयोजन भास जाय तौ रागादिक होय आवै । अर पाकि इस लोक सम्बन्धी कार्य का नाहीं, सातें रागादिका कारण नाहीं ।... बहुरि यथावत् रचना जानने करि भ्रम मिटे उपयोगकी निर्मलता होयातें यह बन्यासकारी है। Jain Education International १०१ अनुयोग ३ चरणानुयोगका समन्वय प्र.सा.रा.प्र./२००/ १२-१३ पानुसारि चरणं चरणानुसारि मियो इयमिदं ननु सम्यपेस् तस्मान्मुमुक्षुरधिरोहतु मोक्षमार्ग. द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ॥१२॥ द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धि द्रव्यस्य सिद्धिश्चरणस्य सिद्धी बुध्येति कर्माविरता' परेऽपि चरणं चरन्तु ॥१३॥ चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है. इस प्रकार वे दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, इसलिए या तो द्रव्यका आश्रय लेकर मुमुक्षु मोक्षमार्ग में आरोहण करो ॥ १२ ॥ द्रव्यकी सिद्धिमें चरणकी सिद्धि है और चरणकी सिद्धिमें द्रव्यकी सिद्धि है, यह जानकर कर्मोसे (शुभाशुभ भाव) से अविरत दूसरे भी, द्रव्यसे अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो ॥१३॥ मोमा.प्र /८/१४/४२८/२० प्रश्न चरणानुयोगविषै बाह्यतादि साधनका उपदेश है, सो इनते कि सिद्धि नाहीं अपने परिणाम निमंत चाहिए. बाह्य चाहो जैमे प्रवत्तौं। उत्तर - आत्म परिणामनिके और बाह्यवृत्तिनिमित-मित्तिक सम्बन्ध हैं। जातें समस्थ क्रिया पाणामपूर्वक हो है । अथवा बाह्य पदार्थनिका आश्रय पाय परिनाम हो है परिणाम मेटनेके अर्थ माहा मस्तुका निषेध करना समयसारादिभिदे (स सा./ए. २८५) का है। महुरि जो बाह्यस्य कि सिद्धि न होय की समर्थसिद्धिके वासी देव सम्यदृष्टि बहुत ज्ञानी तिनिकै तो चौथा गुणस्थान होय अर गृहस्थ श्रावक मनुष्य के पंचम गुणस्थान होय. सो कारण कहा। बहुरि तीर्थंकरादि गृहस्थ पद छोडि काहेको संयम है। I 7 ४ द्रव्यानुयोगका समन्वय मोम /८/१५/४२६/११ प्रश्न- द्रव्यानुयोगवि व्रत-सयमादि व्यव हारधर्मका होनपना प्रगट किया है । इत्यादि कथन सुन जीव है। सो स्वच्छन्द होय पुष्प छोड़ पापवि प्रवरोंगे सायें इनका ना सुनना युक्त नाहीं। उत्तर- जैसे गर्दभ मिश्री खाए मरे तो मनुष्य तौ मिश्री खाना न छाडे । तेसै विपरीतबुद्धि अध्यात्म ग्रन्थ सुनि स्वच्छन्द होय तौ विवेकी तौ अध्यात्मग्रन्थनिका अभ्यास न छोड़ें। इतना करे जाकी स्वच्छन्द होता जाने, ताकी जैसे वह स्वच्छन्द न होय, तैसे उपदेश दे । बहुरि अध्यात्म ग्रन्थनिविषै भी जहाँ तहाँ स्वच्छन्द होनेका निषेध कीजिये है। बहुरि जो झूठा दोषकी कल्पनाकरि अध्यात्म शास्त्रका बाँचना-सुनना निषेधिये तो मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो तहाँ ही है । ताका निषेध किये मोक्षमार्ग का निषेध होय । २. अनुयोगद्वारोंके भेद व लक्षण ५. अनुयोगद्वार सामान्यका लक्षण कपा ३/३-२२/१७/३ किमणि गद्दार णाम । अहियारो भण्णमाणस्थस्स अनगोवाओ। अनुयोगद्वार किसे कहते है कहे जानेवाले अर्थ के के उपायभूत अधिकारको अनुयोगद्वार कहते है । ध १/१,१,५/१००-१०१ / १४३/८ अनियोगो नियोगो भाषा विभाषा वात्तिकेत्यर्थ । उक्त च - अणियोगो य नियोगो भासा विभासा य मडिया चेय एवं असिनामा एआ॥१००॥ सू मुद्दा पहि संभवदल बहिया चेय अभियोगनिरुतीए दिता होति पचे ॥१०१॥ अनुयोग नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ये पाँचो पर्यायवाची नाम है। कहा भी है- अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक में पाँच अनुयोग के एकार्थबाची नाम जानने चाहिए |२००१ अनुयोगी निरुति में सूची, मुद्रा, प्रतिघ, सभवदल और वार्त्तिका ये पाँच दृष्टान्त होते हैं ॥ १०१ ॥ विशेषार्थ लकडीसे किसी वस्तुको तैयार करनेके लिए पहिले लकड़ी के निरुपयोगी भागको निकालनेके लिए उसके ऊपर एक रेखामें जो डोरा डाला जाता है, वह सूचीकर्म है। अनन्तर उस डारासे लकड़ी के ऊपर जो चिह्न कर दिया जाता है वह मुद्रा कर्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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