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________________ अनुयोग अनुयोग ३. करणानुयोगका लक्षण र.क श्रा./४४ लोकालोकविभक्तर्यगपरिवृत्तश्चतुर्गतीना च । आदर्श मिव तथामतिरवै ति करणानयोगं च ॥४१॥ == लोक अलोकके विभागको, युगोके परिवर्तनको तथा चारों गतियोको दर्पणके समान प्रगट करनेवाले करणान योगको सम्यग्ज्ञान जानता है। (अन ध /३/१०/२६०) । द्रस /टो /१२/१८२/१० त्रिलोक्सारे जिनान्तरलाविभागादिग्रन्थव्या ख्यानं करणान योगो विज्ञेय । - त्रिलोक्सारमे तीर्थकरोका अन्तराल और लोकविभाग आदि व्याख्यान है। ऐसे ग्रन्थरूप करणान् - योग जानना चाहिए । (प का /ता वृ/१७३/१५४/१७) । ४ द्रव्यानुयोगका लक्षण र क श्रा./४६ जीवाजीवसुतत्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमाक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीप श्रुत विद्यालाकमातनु ते ॥४६॥ =द्रव्यानु योगरूपी दीपक जीव-अजीव रूप सुतत्त्वो को, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्षको तथा भावश्रुतरूप। प्रकाश का विस्तारता है । (अन ध/२/१२/२६१) । ध १/११.७/१८/४ राताणियोगम्हि जमत्थित्त उत्त तरस पमाण परूवेदि दवाणिगे। सत्प्ररूपणामे जा पदार्थो । अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाणका बण न द्रव्यानुयाग करता है। यह लक्षण अन योगद्वार।के अन्तर्गत द्रव्यान योगका है। द्र,स/टी/४२/१८२११ प्राभृततत्त्वार्थ सिद्धान्तादौर शुद्धाशुद्धजीवादिषड् द्रव्यादीना मुख्यवृत्त्या व्याख्यान क्रियते स द्रव्यान योगो भण्यते। जसम पसार आदि प्राभृत और तत्त्वार्थ सूत्र तथा सिद्धान्त आदि शास्त्र में मुख्यतासे शुद्ध-अशुद्ध जोब आदि छ द्रव्य आदिका जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यान योग कहलाता है। (पं का /ता बृ /१७३/२५४/१८) । ३. चारों अनुयोगोको कथन पद्धनिमें अन्तर १. द्रव्यानुय ग व करणानुयोगमे द्र स /टी /१३/४०/५ एव पुढ विजलतेउबाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन तृतीयगाथापादत्रयेण च धवलज यधवलमहाधव लप्रबन्धाभिधान सिद्वान्तत्रयबोजपद मुचितम् । 'सनेसुद्धा हु मुद्रणया इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशक तृतीयगाथाचतुर्थ पादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारममयसारा भिधानप्राभृतत्र यस्यापि बोज पद सूचितम् । सच्चाध्यात्मग्रन्थस्य बीजपदभूत शुद्वात्मस्वरूपमुक्त तत्पुनरुपादेयमेव । इस रीतिसे चौदह मार्गणाओके कथन के अन्तर्गत 'पुढ बिजलतेउवाऊ' इत्यादि दो गाथाओ और तोसरी गाथाके तीन पदोसे धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन (करुणानुयोगके) सिद्वान्त ग्रन्थ है, उनके बीजपद की सूचना ग्रन्थकारने की है। सव्वे सुद्धा ह सुद्धणया' इस तृतीय गाथाके चौथे पादसे शुद्धात्मतत्त्व के प्रकाशक पचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनो प्राभृतोका बीजपद सूचित किया है । तहाँ जो अध्यात्मग्रन्थका बीज पदभूत शुद्धात्माका स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है। नोट-(धवल आदि वरणानुयोगके शास्त्रोके अनुसार जीव तत्त्वका व्याख्यान पृथिवी जल आदि असद्भूत व्यवहार गत पर्यायोके आधारपर किया जाता है, और पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोगके शास्त्रोके अनुसार उमो जीव तत्त्वका पारुपान उसकी शुद्धाशुद्व निश्चय नयाश्रित पर्यायोके आधारपर किया जाता है। इस प्रकार करणानुयोगमे व्यवहार नयकी मुख्यतासे और द्रव्यानुयोगमे निश्चयनयकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। मो.मा ५/८/७/४०४/४ करणानुयागवि व्यवहारनय की प्रधानता लिये व्याख्यान जानना। मो.मा.प्र/८1८/४०७/२ करणानुयोगविर्ष भी कही उपदेशको मुख्यता लिये व्याख्यान हो है ताकौ सर्वथा तैसे हो न मानना। मो.मा प्र./414/४०६ १४ करणानुयोग विर्षे तौ यथार्थ पदार्थ जलावनेका मुख्य प्रयोजन है । आचरण करावनेकी मुख्यता नाही। रहस्यपूर्ण चिट्ठी प० टोडरमल-समयसार आदि ग्रन्थ अध्यात्म है और आगमको चर्चा गोमट्टसार (करणानुयोग) मे है। २ द्रव्यानुयोग व चरणानुयोगमे मो मा प्र/८/१४/४२६/७ (द्रव्यानुयोगके अनुसार) रागादि भाव घटे वाह्य ऐसै अनुक्रमते श्रावक मुनि धर्म होय । अथवा ऐसे श्रावक मुनि धर्म अगीकार क्येि पचम षष्ठम आदि गुणस्थान नि विष रागादि घटावनेरूप परिणाम निकी प्राप्ति हो है। ऐसा निरूपण चरणानुयोगवि किया। ३. करणानुयोग व चरणानुयोग मे मो मा प्र /८/७/४०६/१४ करणानुयोग विर्षे तो यथार्थ पदार्थ जनावनेका मुख्य प्रयोजन है । आचरण करावनेको मुख्यता नाही। तातै यहु तौ चरणानुयोगादिकके अनुसार प्रवः. तिसतै जो कार्य होना है सो स्वयमेव हो होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहे तो कैसे होय। ___४. चारो अनुयोगोका प्रयोजन १ प्रथमानुयोगका प्रयोजन गो जी |जी प्र/३६१-३६२/७७३/३ प्रथमानुयाग प्रथम मिथ्याष्टिमविरतिकमव्युत्पन्न वा प्रतिपाद्यमानित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकार प्रथमानुयोग । प्रथम क ये मिथ्यादृष्टि अवती, विशेष ज्ञानरहित, ताको उपदेश देने निमित्त जा प्रवृत्त भषा अधिकार अनुयोग कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए। मो मा प्र /८/२/३६४/११ जे जीव तुच्छ बुद्धि होय ते भी तिस करि धर्म सन्मुख होये है। जाते वे जीव सूक्ष्म निरूपणको पहिचान नाही, लौकिक वार्तानिक जानै । तहाँ तिनिका उपयोग लागै। बहुरि प्रथमानुयोगविषै लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकी ते नीकै समझ जाय। २ करुणानयोगका प्रयोजन मो मा प्र/८/3/३६५/२० जे जीव धर्म विषै उपयोग लगाय चाहै ऐसे विचारविषै (अर्थात् करणान योग विषय उनका) उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूट स्वयमेव तत्काल धर्म उ जै है। तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र हो है। बहुरि ऐसा सूक्ष्म कथन जिनमत विर्षे ही है, अन्यत्र नाही, ऐसे महिमा जान जिनमतका श्रद्धानी हो है । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी हाय इस करणानुयोगको अभ्यासै है, तिनको यहु तिस का (तत्त्वनिका) विशेषरूप भास है। ३ चरणानुयोगका प्रयोजन मो.मा प्र/८/४/३६७/७ जे जीव हित-अहितको जानै नाही, हिंसादि पाप कार्यान विपै तत्पर होय रहे है, तिनिको जैसे वे पाप कार्यको छोड धर्मकार्यनिविषै लागै, तैसे उपदेश दिया। ताकौ जानि धर्म आचरण करने को सम्मुख भये। ऐसै साधनतें कषाय मन्द हो है। ताका फलतै इतना तो हो है, जो कुगति विषे दुख न पावै, अर मुगतिविधै सुरख पावै। बहुरि (जो) जीवतत्त्वके ज्ञानी होय करि चरणान योगको अभ्यास है, तिनको ए सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनु सारी भासै है । एकदेश वा सर्व देश वीतरागता भये ऐसी श्रावक्दशा और मुनिदशा हो है। ४ द्रव्यानुयोगका प्रयोजन मोमा प्र/12/३६८/४ जे जावादि द्रव्यानिको का तत्त्वनिको पहिचान नाही, आपापरको भिन्न जाने नाही तिनिको हेतु दृष्टान्त युक्तिकरि वा प्रमाणनयादि करि तिनिका स्वरूप ऐसे दिखाया जैसे याके प्रतीति होय जाय। उनके भावोको पहिचाननेका अभ्यास राखै तो शीघ हो तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होय जाय। बहुरि जिनिकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जोवद्रव्यानुयोग को अभ्यासै । तिनिको अपने श्रद्धानके अनुसारि सो सर्व कथन भतिभास है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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