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________________ अनुयोग है। इसके बाद उसके निरुपयोगी भागको छाँटकर निकाल दिया जाता है। इसे ही प्रतिघ या प्रतिघात कर्म कहते है । फिर इस लकडोके आवश्यकतानुसार जो भाग कर लिये जाने है वह सम्भवदलकर्म है और अन्त में वस्तु तैयार करके उसपर पालिश आदि कर दी जाती है. वही वार्त्तिका कर्म है। इस तरह इन पाँच कर्मोंसे जैसे विवक्षित वस्तु तैयार हो जाती है उसी प्रकार अनुयोग शब्दसे भी आगमानुङ्गल सम्पूर्ण अर्थका ग्रहण होता है। नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक ये चारों अनुयोग शब्दके द्वारा प्रगट होनेवाले अर्थ को ही उत्तरोत्तर विशद करते है, अतएव वे अनुयोगके ही पर्यायाचो नाम है (. ४.१.२४/१२२-१२३/२६०) । .सं./टी./४२/१८३/२ अनुयोगोऽधिकार परिच्छेद प्रकरणमिश्याents | अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद, प्रकरण, इत्यादिक सब शब्द एकार्थवाची हैं । L २. अनुयोगद्वारोंके मेव प्रभेदोंके नाम निर्देश १. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार स. म. / २८/३०६/२२ चश्वारि हि प्रवचनानुयोगमहानगरस्य द्वाराणि उपक्रमः निक्षैप' अनुगम' नयश्चेति । प्रवचन अनुयोगरूपी महानगरके चार द्वार हैं- उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । (इनके प्रभेद व लक्षण - दे, वह वह नाम ) २. निर्देश, स्वामित्व आदि छः अनुयोगद्वार रा.सू./१/० निर्देशस्वामित्व साधनाधिकरण स्थितिविधान निर्देश स्वामित्व साधना (कारण) अधिकरण (आधार), स्थिति (काल) तथा विधान (प्रकार) - ऐसे छः प्रकारसे सात तत्त्वोंको जाना जाता है व पू. १५)। घ. १/१.१.२/१८/१४ कि कस्म के करम व केवचिरं करिविधो य भावो ति। छह अणगारेहि सम्बभावापुरतच्या ३९८३ पदार्थ क्या है (निर्देश) किसका है (स्वामित्व ), किसके द्वारा होता है ( साधन ), कहाँ पर होता है (अधिकरण), कितने समय तक रहता है (स्थिति), कितने प्रकारका है (विधान ), इस प्रकार इन छह अनुयोगद्वारोंसे सम्पूर्ण पदार्थोंका ज्ञान करना चाहिए । ३. सत् संख्यादि ८ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद - प्रभेद अनुयोगद्वार स सू /१/८. सत I घ. ख. १/१. १.८/१५६ 1 1 ओघ आदेश संख्या भागाभाग घ. ख, १३/५.३/ सूत्र २ / पृ २ ।। I १/१२/७/९५५ / | 1. 1 I II द्रव्यप्रमाण क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव अल्पबहुत्व 1 ष. ख ७/२, १/ सू. १,२/२५ 1 1 एक जीव नानाजी की अपेक्षा की अपेक्षा १. स्पर्श निक्षेप २. स्पर्शनामविभीषणता ३. स्पर्शनाम विधान ४. स्पशद्रव्यविधान ५. स्पर्श क्षेत्र विधान 4. स्पशंकाल विधान ७. स्पर्शभाव विधान घ. १०/४,२,४,२८/६९/२ T प्ररूपणा I प्रमाण Jain Education International ८. स्पर्शप्रत्ययविधान १. स्पर्शस्वामित्वविधान १०. स्पर्शस्पर्श विधान ११. स्पर्शगतिविधान १२. स्पर्श अन्तर विधान १३. स्पर्शसन्निकर्ष विधान १४. स्पर्शपरिमाणविधान १५. स्पर्शभागाभागविधान - १६. स्पर्श अल्पबहुत्व 1 १०२ T 1 श्रेणी । च. वं. १९/४,२,६/सु. २५२/३५२ 1 अवहार भागहार T अल्पबहुत्व अनन्तरोपनिधा । ध. १०/४२,४,२८/६६/६ ।। अवस्थित भागाहार २. रूपाधिक भागाहार १. ३. रूपोन भागाहार ४. छेद भागाहार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only प्ररूपणा अनुयोग I परम्परोपनिधा T 1 | ध १०/४.२,४,२८/७४/३ I प्रमाण अल्पबहुत्व ४. पक्ष्मीमासादि अनुयोगद्वार निर्देश - ५. नं. १०/४.१.४/१/१८ यादव्यवहारमा सिणि अभियोगद्वाराणि नादव्वाणि भवति पदमीमांसा सामिसमप्पा महुए त्ति ॥१॥ - अब वेदना द्रव्य विधानका प्रकरण है। उसमें पदमीमांसा, स्वामित्व और त्व, ये टीम अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है ॥१॥ घ. १०/४.१.४.९/१८/५ तत्पदं दुनियापदं भेदपदमिदि ध. १०/४, २, ४, १/११/२ एत्थभेदपदेन उक्कस्सादिसरूवेण अहियारो । उच्चस्साकस्स-जणाजण सादि-अनादि-धुप-अ व ओज-जुम्म ओम विसिद्ध-मोमणोवि सिमेन एत्थतेरस पदानि । घ. १०/४.२.४.१/गा. २/११ पदमीमांसा सखा गुणयारी च सामन्त खोज अध्यान ठाणानि य जीवसमुहारो - पद दो प्रकारका है-व्यवस्थापद और भेदपद। यहाँ उत्कृष्टादि भेदपदका अधिकार है । उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य, सादि, अनादि ध व अधव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोओम विशिष्ट पदके भेद से यहाँ तेरह पद है । पदमीमासा, संख्या, गुणकार, चौथा स्वामित्व, ओज, अल्पबहुत्व, स्थान और जीव समुदाहार मे बार अनुयोगद्वार है। ३. अनुयोगद्वार निर्देश १. सत्, संख्यावि अनुयोगद्वारोंके क्रमका कारण 1 घ. ९/९.९.०/१५६-१५८/० साथियोगी साणियोगद्वारा जेन जोशीदो तेन पढमं संतानियोगो चेन भण्णदे निय-संखा-गुणिदोगान खेत उच्चदे दि एव चेन अदीद-फुसणेण सह फोसण उच्चदे । तदो दो वि अहियारा सखा जोणिणो णाणेग-जीये अस्सिऊण उच्चमाण-कालं तर परूवणा वि संखा-जोणी । इद थोवमिदं च बहुवमिदि भण्णमाण - अप्पाबहुग पि संखा-जोणी । तेण एदानमाहि दव्यमाणागमो भव-जोग्गो 1. भावो तस्स बहुवण्णादो |... अवगय-बट्टमाण फासो सुहेण दो वि पच्छा जाणदुत्ति फोसणपरूवणादी होदु णाम पुव्वं खेत्तस्स परूवणा, अणवगयखेत्तफोसणस्स तक्काल तर जाणणुवायाभावादो । तहा भावप्पाबहुगाण पाखेत फोसणानुगममंतरेण णतविषमा होति विमेन खेत्त-फोसण-परूवणा कायव्वा । ण ताव अंतरपरूषणा एत्थ भणणजग्गा कालजोणितादी । ण भावो वि तस्स तदो हेट्ठिम अहियारजोनिता अप्पामहूगं पि तस्स वि वेसानियोग-जोणितादो परिसेसादी कालो चेत्र तत्थ परूवणा- जोगी त्ति । भावप्पा बहुगाणं' जोगिसादो व्यमेवं तर उता उपजोनितादो मेन भावपरूवणा उच्च दे। सत्प्ररूपणारूप अनुयोगद्वार जिस कारण से शेष अनुयोगद्वारोंका योनित है, उसी कारण सबसे पहले सत्प्ररूपणाका ही निरूपण किया है . १५५॥ अपनी-अपनी संख्या गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते हैं। इसी प्रकार अतीतकालीम स्पर्श के साथ स्पर्शमागम कहा जाता है। इसलिए हम दोनों www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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