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________________ १०] प्रस्तावना उक्त १९. और क्रमांक ३२ वा इन २० आख्यानकों के अतिरिक्त शेष १०६ आख्यानकों में भी कुछ आख्यानक ऐसे हैं जिनमें प्रतिपाद्य विषय के प्रसंग को छोडकर शेष प्रसंगों का विवरण संक्षिप्त है। ग्रन्थगत १२७ आख्यानको में से कुछ आख्यानक प्रचलित जैन परम्परा के ढंग से, कुछ कुक्कुटाख्यानक (१०९) जैसे अजेन परम्परा के पौराणिक ढंग से और कुछ लौकिक दृष्टान्तो का अनुकरण करते हुए लिखे गये हैं। इन सभी आख्यानकों में सांप्रदायिक संस्कार का प्रभाव देखा जाता है । रोहिण्याख्यानक (१५) की कथावस्तु, नन्दोपाख्यान नामक लघुरचना के प्राचीन प्रवाह की द्योतक है । अन्य लेखको के जिन नन्दोपाख्यानों को हमने देखा है वे प्रस्तुत ग्रन्थ से अर्वाचीन ही मालूम होते हैं। फिर भी इस कथा का प्रवाह प्रस्तत ग्रन्थ से भी प्राचीन होगा ही। अभयाख्यानक (४) में चण्डप्रद्योत राजा अपनी पुत्री वासवदत्ता को संगीत सिखाने के लिये उदयन को कहता है (गा. २२९ से २३६), यह घटना आवश्यकचूर्णि में भी मिलती है। इसी तरह की कथा बिल्हा कवि के विषय में भी मिलती है, यह कथा बहुत समय बाद की है। इसमें नायक बिल्हण को अंधा और नायिका को कोढी बताया है जब कि यहाँ नायक को कोढी और नायिका को कानी बताई है। बाकी दोनों ही रचनाओं में राजा अपनी पत्री को विद्याभ्यास सिखाना चाहता है किन्तु गुरु और शिष्या के मुखदर्शन से ये एक दूसरों में आसक्त न हो जाय इसलिए प्रत्येक को अन्य के विकलांग होने की बात कहकर एक दूसरे का मुखदर्शन वर्पा बताकर दोनों के बीच पर्दा डाल दिया जाता है किन्तु बाद में भेद खुल जाता है । दानों परस्पर प्रेम करने लग जाते हैं और बाद में विवाह भी हो जाता है। इस तरह के अनेक पूर्वप्रवाह लेखक को मिले होंगे ! प्रत्येक आख्यानक को कथावस्तु को अन्यान्य साहित्य के साथ तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो अनेक बातें जानने को मिल सकती हैं। समयाभाव से हम इस सामग्री से पाठको को वंचित रख रहे हैं, यह हमारी मजबूरी है । प्रस्तुत रचना का समय गुजरात के इतिहास का सुवर्ण युग था । इस युग में गौरवीरों, सजनीतिज्ञों, महाजनों और कलागरुओं ने अपने-अपने क्षेत्र में सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इस बात के सैंकडों प्रमाण आज विद्यमान हैं। इसी प्रकार गुर्जरेश्वर जयसिंहदेव के विद्याप्रेम से विशेष प्रोत्साहित होकर जैन-अजैन विद्वानोंने सैकडों मौलिक रचनाएँ देकर जगत् को चिरऋणी कर दिया है । ऐसे अजोड सारस्वत युगमें जैन श्रमणोंने उद्युक्त हो कर तत्त्वज्ञान, योग, काव्यशास्त्र, व्याकरण आदि विविध विषयों के उच्चकोटि के ग्रन्थों का निर्माण किया है। इतना ही नहीं आम प्रजा के जीवनस्तर को धार्मिक, नैतिक और परोपकारी बनाने की दृष्टि से उपदेशात्मक एवं धर्मकथात्मक सैकड़ों ग्रन्थों का निर्माण किया है। संस्कृत के सिवाय प्राकृत, अपभ्रंश एवं गुजराती भाषा में ग्रन्थों का निर्माग होने से उस साहित्य का महत्त्व और भी बढ़ गया है। । प्रस्तुत ग्रन्थ का अधिकांश प्राकृत में ही है। इनमें तीन कथानकों की रचना अपभ्रंश में की है। प्राकृत कथानको में भी कहीं वर्णन के रूप में और कहीं सुभाषितों के रूप में अपभ्रंश का प्रयोग किया है (देखो परिशिष्ट ४ था)। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राकृत भाषा का कोश बनाने में उपयोगी अप्रसिद्ध देश्य शब्द और प्राकृत शब्द भी ठीक ठीक प्रमाण में मिले हैं (देखो परिशिष्ट ३)। इस दृष्टि से भाषाशास्त्र के अभ्यासियों के लिए यह ग्रन्थ कम महत्त्व का नहीं है । काव्यशास्त्र के अभ्यासियों के लिए भी इस ग्रन्थ में प्रयुक्त विरोधाभासालंकार, गृहीतमुक्तपदालंकार, इलेषालंकार आदि अलंकार, वर्णक (देखो परिशिष्ट ५ वा) संवाद और प्रहेलिका आदि ज्ञातव्य सामग्री अवश्य उपलब्ध होगी। १. नन्दोपाख्यान की जैन-अजैन कृतियां संस्कृत, प्राचीन गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में मिलती है। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016006
Book TitleAkhyanakmanikosha
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages504
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Story
File Size13 MB
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