SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आख्यानकमणिकोशवृत्ति [ ९ संस्कृत भाषा में दिये हैं। इसके अतिरिक्त वृत्तिकार का मंगल और उनकी प्रशस्ति संस्कृत के विविध छंदो में है । इस प्रकार वृत्ति की भाषा संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश होते हुए भी ग्रन्थ का बड़ा हिस्सा प्राकृत में ही रचा हुआ है । उपरोक्त प्राकृतेतर भाषानिबद्ध दस आख्यानकों में से १४, १७ और १२४ वें आख्यानकों की रचना संस्कृत गद्य में है । शेष सात में से ३९, ६४, और १०९ क्रमांक वाले आख्यानक संस्कृत के अनुष्टुप् छंद में है । १२२ वाँ भव्यकुटुम्बाख्यानक 'प्रबोधिनी' नामक छंद में है प्रबोधिनी का परिचय आचार्य हेमचन्द्रीय छंदानुशासन में मिलता है । इस छंद को जयकीर्ति ने 'विबोधिता' कहा है । वृत्तरत्नाकर में इसके वियोगिनी, अपरवक्त्र, मुरली, ललिता और शिखामणी ऐसे पांच नाम मिलते हैं । और छन्द: कौस्तुभ में इसका 'सुन्दरी' नाम आया है । यह छंद मात्रावृत्त और वर्णवृत्त जाति का है । शेष तीन में से २३ और ४२ क्रमाङ्कवाले दा आख्यानक अपभ्रंश में हैं ( इस के उपरान्त ७३ वाँ भावनिकाख्यान में अवान्तरकथा के रूप में आया हुआ चारुदत्तचरिउ की रचना भी अपभ्रंश में है । इस प्रकार इस ग्रन्थ के तीन आख्यानक अपभ्रंश में है ) । १२१ क्रमाङ्क वाला कुलानन्दाख्यानक आर्या छंद में है । इसकी ५० गाथाएँ है । प्रत्येक गाथा का पूर्वार्द्ध संस्कृत में और उत्तरार्द्ध प्राकृत में है । अतः इस की भाषा संस्कृत-प्राकृत है । २० व रुक्मिण्याख्यानक और २१ व मध्वाख्यानक की एक ही कथा है । अतः आख्यानकों की संख्या १२७ होते हुए भी आख्यानक १२६ ही है । १० वें क्रमाङ्कवाला चन्दनार्याख्यानक तथा ६५ वां कंबलसंबलाख्यानक इन दो को वृत्तिकारने नेमिचन्द्रसूरिकृत महावीरचरित में से अक्षरशः गुरु के बहुमानार्थ लिया है। यह बात वृत्तिकारने आख्यानकों के अन्त में की है । ३२ वें क्रमाङ्कवाला बकुलाख्यानक की विशेष घटना जानने के लिए वृत्तिकारने नेमिचन्द्रसूरि कृत 'रत्नचूडकथा' को देखने का निर्देश दिया है। इसके अतिरिक्त १९ आख्यानकों के अन्त में उन आख्यानकों के अन्तर्गत की गई कथाओं के विषय में विशेष जानकारी के लिए ग्रंथान्तर को देखने का निर्देश दिया है इससे और इस ग्रन्थ की सुभाषित गाथाओं में से कुछ गाथाएँ प्राचीन ग्रन्थों की या मौखिक परम्परा की होगी' - एसा भी अनुमान होता है अतः यह ग्रन्थ एतदविषयक पूर्व साहित्य के असर से अछूता नहीं है । वृत्तिकारने जिन १९ आख्यानकों के अंत में कथा के विशेष विवरण के लिये प्रन्थांतरों को देखने की सिफारिश की है - वह इस प्रकार है- आख्यानकक्रमांक १४ और ११३ वें के अंत में रामचरित देखने का निर्देश है। यहां संभवतः विमलसूरिकृत पउमचरिय अभिप्रेत है । १९, २०-२१ और ११० वें आख्यानक की कथा हरिवंश नामक ग्रन्थ में देखने का निर्देश है । यह हरिवंश ग्रन्थ भी विमलसूरि का होना चाहिये । आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है किन्तु इसका उल्लेख दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला के प्रारंभ में कविवर्जन में मिलता है । ५६ वां आख्यानक आवश्यक में, ६६ वां आवश्यक विवरण में, ११२ व उत्तराध्ययन में, ३६ व निशीथ में, १७ और १२४ वें आख्यानक को क्रमशः 'मूलावश्यकगत सप्ताविंशतिभवनिबद्ध वीरचरित' एवं 'वीरबृहच्चरित' में देखने का निर्देश किया है। संभव है, यह दोनों वीरचरित आवश्यकगत अभिप्रेत हो । ४६, ५३, ७१ और १०१ क्रमाङ्गवाले चार आख्यानकों को 'ग्रन्धान्तरों' में तथा ७७, ९८, ९९ और ११५ क्रमाक वाले चार आख्यानकों को क्रमशः समय, सिद्धान्त (गा. १७ में) और श्रुत में देखलेने का निर्देश है । १. २५ मुलसाख्यानक की ४० से ४९ गाथाएँ आचार्य हेमचन्द्रसूरि के गुरु देवचन्द्रसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरणटीकागत सुलक्खाणु में प्रन्थान्तरावतारितपाठद्योतक भणियं च' इस प्रकार की उत्थानिका के साथ अवतरित की हैं। मूलशुद्धिटीका का रचनासमय वि सं ११४४ का है । जब कि प्रस्तुत वृत्ति की रचना ११९० की है । जिस प्रकार ये दश गाथाएँ देवचन्द्रसूरि से पूर्व की निश्चित होती है वैसे ही अन्य गाथाएँ भी पूर्व प्रवाह से चली आती हों तो यह असंभव नहीं ॥ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016006
Book TitleAkhyanakmanikosha
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages504
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Story
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy