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________________ २०६ आख्यानकमणिकोशे पभणंती रे ! अज्ज वि चिट्टसि पाविट्ठ : निटर निकिट्ट ! । तो पुहइपाल ! पत्ता घोरा मारी मह सयासे ॥४३५॥ जा पच्चासन्नटिया ता गहिया वामकरयलम्मि मए । उम्मोडिऊग हत्थं पलायमाणा तओ झत्ति ॥४३६।। दाहिणकरयलरियाग लंछिया दाहिणम्मि ऊरुम्मि । तीए करकमलकडयं मझ करे च्चिय ठियं सामि ! ॥४३७॥ अईसणी गया सा सहसा रविमंडलम्स रयणि व्व । एत्थंतरम्मि तरणी सनुग्गओ तं निएउव॥४३८॥ एत्तो य परमसेसं पि साहियं तुम्ह तो भणइ राया । अहह ! अहो ! अच्छरियं अच्छरियमिमम्स पुरिसम्स ॥४३॥ कोऊहलेण राया जंपइ दंसेस मज्झ तं कडयं । तो उट्टियाए कड़ित अप्पए पुहइपालम्स ||४४०॥ पेच्छेइ नरवरिंदो कदा उकीरियं नियं नाम । दट्टण तं विचिंतइ अहो ! किमयं अघडमाणं ? ॥४४१॥ जम्हा कुमरीए करे पुग पिणद्धं इमं मए आसि । ता कि नारीहत्थे चडियं अहवा वि सा मारी ॥४४२॥ जइ एरिसाए मारीए कारिया रयणमंजरी कुमरी । ता नूण मयंकमणी जलणफुलिंगे समुग्गिरइ ॥४४३॥ इय चिंतिऊण राया सरीरचिंताछलेण तं दटुं । जा जाइ रयणमंजरिपासे ता नियइ तं मुत्तं ॥४४|| अवरं च वामपाणी सुन्नं कडपण दाहिणोरं च । बद्धं पट्टेण निरिक्खिऊण वज्जेण पहओ व्व ।।१४५॥ चिंतेह निवो पावाए मझ चंसो कलंकिओ चेव । तो निग्गहेमि एवं नयरिजणं भक्खा न जाब ॥४४६॥ इय चिंति वलित्ता पुणरवि सीहासणे समुवविठ्ठो । मित्ताणंदं पुच्छइ किं केवलमेव तुह सत्तं ? ॥४४७॥ विप्फुरइ अहव तुह कावि मंतसत्ती वि ? तयणु सो भणइ । नरनाह ! मज्झ नियकुलकमागओ अस्थि मंतो वि ॥४४८॥ तो एगते काऊण भूवई भणइ भद्द! मह कुमरी । नियमेण घोरमारी ता तीए विणिग्गहं कुणम् ॥४४६|| विनवइ सो वि सामिय ! सज्झमसझं ति तं परिक्खेमि । नरवडणाऽणुन्नाओ तओ गओ तीए गेहम्मि ॥४५०॥ किं रयणिवीरपुरिसो समेइ ? अह तायपेसिओ कोइ ? । इय चिंतिऊग कुमरी अन्भुट्टिय आसणं देइ ॥४५१।। जंपइ मित्ताणंदो कुमारि ! संभरसि रयणिवुत्तंतं ? । अवरं च घोरमारीरूवो जाओ तुह कलंको ॥४५२।। नरवइणा वि हु तं मम अप्पिया गरूयनिग्गहनिमित्तं । एयं पुण सव्वं पि हु तुज्झ निमित्तं मए विहियं ॥४५३॥ ता जइ करेसि करुणं आसाबंधं च नेसि सहलत्तं । ता एहि जेण इमिणा ववएसेणं तुम नेमि ।।४५४॥ अह नाऽऽगच्छसि तो तुह रउद्दमारीकलंकमवणेमि । तं पि मह जीवियत्वे संपइ सलिलंजलिं देहि ॥४५५। चिंतेइ तओ कुमरी सप्पुरिसो एस मं पयंपेइ । ता जामि अहं अहवा न व ति दोलायए हिययं ॥४५६॥ अहवा रक्खेमि इमं इण्हि गुणरयणरोहणगिरिंदं । इय चिंतिऊण पभणइ तुह जीयं वल्लहं मझ ॥४५७|| ता भण जं कायव्वं केकरमु तुमं ति तेण सा भणिया । मह हुंफुडु त्ति भणिए सरिसवनिक्खेवसमयम्मि ।।४५८॥ इय संकेयं का समागओ भणइ देव ! मह सज्झा । किंतु समप्पसु जाणं जेण निसाए मुयइ देसं ॥४५॥ अह कह वि देसमझे गच्छंतीए समुग्गई सूरो । ता अवलोइयमेत्ता मारी एसा तह च्चेय ॥४६०॥ भीएण पुहइपालेण अप्पिया पवणवेगवडवा से । अत्थमिए दिवसयरे वित्थरिए तिमिरपन्भारे ॥४६॥ काऊण सिहावं, अभिमंतिय सरसवेहिं ताडित्ता । सा पक्कारकराला वडवाए चडाविया तेण ।।४६२।। हरिस-विसाय-महाभयविवसेण नरेसरेण सह चलिओ। उग्घाडाविय पुरवरपओलिदारेण नीहरिओ॥४६३।। अक्कंतनयरिपरिसरधवीटो पभणिओ कुमारीए । आरुहसु वडवपिढें सो जंपइ जामि पाएहिं ।।४६४॥ थोवंतरे पुणो वि हु भणिओ नाऽऽरुहइ कहइ परमत्थं । आणीया जह न तुम नियकज्जे किंतु मह मित्तो ॥४६५॥ नामेण अमरदत्तो तुह पडिकवेण मोहिओ अहियं । मह हिययवल्लहो सो तम्स निमित्तं तमाणीया ॥४६६।। ता मित्तकलत्तेणं सह निवसिज्जइ न एगटाणम्मि । इय नियुणिऊण कुमरी हरिसियहियया विचिंतेइ ॥४६७|| एयम्स अहो ! मित्ते वच्छल्लं अहह ! नीइकुसलतं । अहह ! महापुरिसत्तं परोवयारित्तणं अहह ! ॥४६८॥ अवरं च अमरदत्तम्स नाममेत्तेण पुलइयसरीरा । सा चिंत्तइ सुहहेऊ मझ कलंको वि संजाओ ॥४६॥ अणवस्यपयाणहिं पाडलिपुत्तम्स परिसरे पत्ता । एत्तो य अमरदत्तो मित्ताणंदे गए देसे ॥४७०॥ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016006
Book TitleAkhyanakmanikosha
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages504
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationDictionary & Story
File Size13 MB
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