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________________ (1) जल युद्ध को शांति मिली और फिर वह केवली बन गये। बाहबली की कैवल्य प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति (2) मल्ल युद्ध पर भरत ने उनकी एक मूर्ति बनवाई थी परन्तु (5) दृष्टि युद्ध समय बीतने पर उस पर लता-गुल्म चढ़ते गये और बाद में वह लापता हो गई। इन तीनों युद्धों में बाहुबली को विजय प्राप्त हुई। निःसंदेह बाहुबली बल-शक्ति में भरत से आगे थे, कहा जाता है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में उनका शरीर भरत से बहत ऊंचा था। भरत को भारत में घोर अकाल पड़ा, असंख्य लोग उत्तर पराजय का मह देखना पडा, आजतक उसे कोई भारत से विध्याचल के पार दक्षिण की ओर चले पराजित नहीं कर सका था, उसे इसमें अपना घोर गये । उनमें मगध-राजसिंहासन परित्यक्त करने अपमान दिखाई दिया और हिंसा तथा प्रतिशोध वाले सम्राट चन्द्रगुप्त और उनके गुरु स्वामी की धधकती ज्वाला को वह शांत न कर सका, प्राचार्य भद्रबाहु भी थे। उन्होंने 'कलवपू' नामक उसने तुरन्त अपना चक्ररत्न बाहुबली के प्राण लेने स्थान पर कठिन तप किया। चन्द्रगुप्त की याद में के लिए चलाया । परन्तु यह क्या ? चक्ररत्न बाह- एक पहाड़ी का नाम प्राज भी 'चन्द्रगिरि' कहा बली की परिक्रमा करके उसके पास स्थिर खड़ा जाता है और इस स्थान को 'श्रवणबेलगोल' कहते हो गया । भरत अहंकार में अंधे हो गये थे और हैं, इसी श्रवणबेलगोल में यह महामस्तकाभिषेक भूल बैठे थे कि चक्ररत्न परिजनों पर प्रहार नहीं महोत्सव 12 वर्षों में एक बार मनाया जाता है। करता । चारों ओर से भरत पर तिस्कार और निन्दा भरी नजरें पड़ी, वह पानी-पानी होकर रह "श्रवणवेलगोल" कन्नडभाषा का शब्द है। गया, उसका सारा अहंकार-दर्प नष्ट हो गया। कन्नड में "बेल" का अर्थ है सफेद और "गोल" उधर बाहुबली का आत्मज्ञान विकसित हुआ, माया का अर्थ है सरोवर । सफेद मूर्ति और कल्याणी पाश से वह मुक्त हुआ और देखते-देखते उसने सरोवर के मेल से इस स्थान को श्रवणबेलगोल पोदनपुर की सकल राजसम्पदा भरत के चरणों पर कहते हैं । यहीं कार्योत्सर्ग-मुद्रा में भगबान बाहुबली डाल दी, सब कुछ त्याग दिया, प्राज इसी राज- की विशाल मूर्ति उत्तर दिशा की ओर उन्मुख सम्पदा ने भाई को भाई का शत्रु-जानी दुश्मन बना विराजमान है-मानो वह सकल भारत को, मानव दिया था। बाहुबली ने दीक्षा ली और जंगल में जाति को संसार की अनित्यता का मौन संदेश दे जाकर घोर तप-साधना में लीन हो गये । उनकी रही है, हिंसा, अहंकार, माया-लोभ की नि:सारता यह साधना वर्षों चली परन्तु उन्हें कैवल्य की प्राप्ति का उज्ज्वल दृष्टान्त प्रस्तुत कर रही है और वही न हुई । तपावस्था में ही उन्हें ध्यान आ जाता कि लोगों का भक्ति-तीर्थ और मुक्ति-तीर्थ बनी वह भरत की भूमि पर खड़े हैं, यह एक शल्य था हुई हैं। जो उनके मन को मथ रहा था, यही उनके कैवल्यमार्ग में बाधक विचार था। जब भरत को इसकी श्रवणबेलगोल कर्नाटक राज्य के जिला हासन खबर मिली तो वह बाहुबली के चरणों में आ गिरे, का एक छोटा सा गांव है जो बंगलौर शहर से क्षमा याचना करते हुए बोले कि भाई यह भूमि 145 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह हासन मेरी कहां है, यह तो ईश्वर की है, मेरा इस पर से 50 कि.मी. और मैसूर से 89 कि.मी. की दूरी कोई अधिकार नहीं। इस प्रकार बाहुबली के मन पर सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। यहां इस बार 2/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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