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________________ जिकता पनप सकती है जिसमें न तो किसी प्रकार व्यवस्था का प्रतिवाद नहीं किया गया है। भगवान का शोषण हो और न उँच नीच का भेदभाव । के सर्वोदय तीर्थ में हर जगह निरतिवादी व्यवस्था मानव केवल मानव है और उसकी महत्ता का को महत्व दिया गया हैं। धर्म के सर्वोदय मूल्यांकन बिना किसी भेदभाव के गुणों के आधार स्वरुप कों हम सर्व जीव समभाव, सर्वधर्म समभाव पर हो, न कि जाति, कुल, पद, प्रतिष्ठा, धन और और सर्व जाति समाभाव के रुप में समझ सकते वैभव आदि के आधार पर। उसमें सहयोग, सह हैं। यहां मनुष्यकृत विषमतामों के लिए कोई अस्तित्व, सह-प्रतिष्ठा आदि मानवोचित गुणों स्थान नहीं है, चाहे वे कितनी ही पुरानी क्यों न हो ? पर बल दिया गया हो। ___महावीर ने धर्म के जिस सर्वोदय स्वरुप का । तीर्थकर महावीर की देशना की यह विशे- प्रतिपादन किया उसे हम उस विश्व धर्म की संज्ञा दे पता रही है कि वह प्रत्येक व्यवस्था को द्रव्य, क्षेत्र सकते हैं जिसके मूल में अहिंसा की प्राण प्रतिष्ठा काल और भाव के अनुसार परिवर्तित करने की की गई हो और जिसमें सर्वाशंत: अहिंसा का मर्म उपयोगिता का सर्मथन करती है। परम्परात्रों की व्याप्त हो। समस्त प्राणियों का कल्याण करने अपेक्षा वहां परीक्षा, तर्क और दलीलों को अधिक वाला, जीवात्माओं का अभ्युत्थान करने वाला श्रेय प्राप्त है। दया, दम, त्याग, सहिष्णुता, और मानव समाज के प्राध्यत्मिक विकास में परम समाधि आदि समस्त मानवीय गुणों के चरम सहायक के रुप में सर्वोदय धर्म अहिंसा धर्म है, विकास का सर्मथन करते हुए भी यहां किसी भी विश्वधर्म है। सहायक निबन्धक (आयुर्वेद) भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद १-ई/६ स्वामी रामतीर्थ नगर, नई-दिल्ली-110055 1/30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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