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________________ होते। वही कारण है कि धर्म को कभी रूढ़ियों से जीवन प्राप्त करने की स्फूर्ति नहीं मिलती व्यव हारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य, कलह में शांति तथा जीनमात्र के प्रति श्रात्मीयता का भाव उत्पन्न होना ही सच्चा धर्म है और उसी से मानव समाज का, प्राणि मात्र का कल्याण सम्भव है 1 कि धर्म का सर्वोदय स्वरूप तब प्राप्त नहीं हो सकता जब तक आग्रह दूर नहीं हो जाता। क्योंकि धाग्रह ही विग्रह पैदा करता है घोर विग्रह से मन में अनेक बुराईयां उत्पन्न होकर प्रशांति पैदा होती है। वस्तुतः मन की हिंसा का नाम आग्रह है और जब वही ग्रह बाहर आ जाता है तब वह बाहय हिंसा का रूप धारख कर लेता है। जहां हिंसा होती है वहां धर्म किसी भी रूप में टिक नहीं सकता । अतः धर्म का स्वरूप समझने और उसे जीवन में प्रवाहित करने लिए हिंसा का परिहार यावश्यक हैं। वर्तमान में हिंसा का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक हो गया है । प्राज मनुष्य के प्रतिक्षरण के आचरण में हिंसा व्याप्त हो चुकी है, उसका मन - वचन कार्य हिंसा से पूर्णत: व्याप्त है । हत्याएं, प्रागजनी, लूटपाट और अपहरण तक ही हिंसा का दायरा सीमित नहीं है, अपितु व्यक्ति श्रौर समाज का शोषण, अनीति, अन्याय, जमाखोरी मुनाफाखोरी, जीवन की प्रावश्यक वस्तुओं में मिलावट, घूसखोरी, भ्रष्टाचार आदि अन्याय प्रवृतियां भी हिंसा की परिधि में समाविष्ट हैं । ये सारी क्रियाएँ माज मनुष्य अपने लिए प्रावश्यक समझता है। यही कारण हैं कि आज धर्म मनुष्य के जीवन से दूर हो गया है। वर्तमान में धर्म केवल दिखावटी बाह्य क्रियाओं तक ही रह गया है । अन्तःकरण में उतरने की उसे छूट नहीं है । अतः धर्माचरण रहित मनुष्य का पवभ्रष्ट होकर पतनोन्मुख होना स्वभाविक है । यह भीं काल की एक विडम्बना है । Jain Education International तक मनुष्य को उसके मन का वर्तमान परिस्थितियों में मनुष्य के जीवन का आमूल परिष्कार नितान्त आवश्यक है। इसके बिना मन का सस्कार और आचरण की शुद्धता सम्भव नहीं है । अतः वस्तु स्वरूप और धर्म के प्रति श्रद्धा भाव रखना, उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर समवन्य रूप से उसे समझना तथा आचरण की परिशुद्धि के साथ उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना ही वास्तविक धर्म का मूल है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है। हिंसा सत्य, अस्तेय नियम तथा गुदुतर कालीन संघर्ष की जीवमात्र के कल्यास इसकी अनुशंगिक धाराएं हैब्रह्मचार्य धौर अपरिग्रह रूप ऋजुता चादि गुण । वर्तमान अग्नि से परिदग्ध संसार को मीर उत्कर्ष की भावना से प्रोतप्रोत इस धर्म मूलक रत्नत्रय के परिशीलन की नितान्त श्रावश्यकता है । सामाजिक समता और विश्व शान्ति का वही एक मात्र निदान है । महावीर के धर्म के सर्वोदय स्वरुप का एक अपरिहार्य रूप अनेकान्त है यह व्यवहारिक दृष्टि से विरोध में सामंजस्य और कलह में शांति स्थापित कर मनुष्य में समझौते को भावला उत्पन्न करता है और सहयोग मूलक समाज रचना पर जोर देता है। जब हम घट पट प्रादि सामान्य पदार्थों का स्वरुप भी अनेकान्त के विना नहीं समझ सकते तब ग्रात्मा की खुराक बनकर श्राने वाले धर्म का स्वरूप उसके बिना कैसे समझ सकते हैं ? अनेकान्त जहाँ निष्पक्ष और यथार्थ दृष्टिकोण की सक्षमता का द्योतक है वहां वह जीवन की बिषमता और व्यवहारिक कठिनाइयों कों दूर करने में भी समर्थ है । धर्म के सर्वोदय स्यरूप में पापी के अहंकार की उत्तेजना नहीं होती है और न लोक मूढ़ता प्रादि का प्रातंक होता आदि का प्रातंक होता है । उसमें प्रत्येक वस्तु लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा परखी जाती है। धर्म सर्वोदय स्वरुप में केवल वही सामा 1/29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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