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________________ घोर तपस्या-अात्म साधना के बाद प्राप्त हुआ था। आत्मा को इतना उन्नत बना दिया कि वे परमात्म जब तक कोई अपने आपको पूर्णतः साधन ले, तत्ब के एकदम निकट पहुंच गए । निरन्तर द्वादशअपने प्राभ्यन्तर शत्रु राग-द्वेष और मोह पर विजय वर्षीय घोरतम तपश्चरण एवं कठोर साधना का प्राप्त न कर ले तब तक वह तीर्थकर नहीं हो सकता। पुण्य फल उन्हें तेरहवें वर्ष के प्रारम्भ में प्राप्त जीवों को कर्म-बंधन से मक्ति का उपाय वही बतला हुप्रा । वह पुण्यफल था केवल ज्ञान की प्राप्ति । सकता है या दूसरों को उपदेश देने का यथार्थ यह चरण अनुत्तर एवं उत्कृष्ट केवल ज्ञान इतना अधिकारी वही है जो स्वयं कर्म बंधन से मुक्त हो अनन्त, निरावरण एवं अव्याहत होता है कि मनुष्य चुका हो । तीर्थकर की यह विशेषता जब महावीर इसकी प्राप्ति के अनन्तर देव-प्रसूर-मानव-तिर्यच ने सर्वाशंत: प्राप्त कर ली तो वे तीर्थकर हो गए प्रधान इहलौकिक समस्त पर्यायों का अविच्छिन्न और तब ही उनकी दिव्य ध्वनि का पावन प्रवाह रूप से ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है। इस प्रकार महाजन-मानस के अभ्यन्तर कल्मष को धोने में समर्थ वीर ने साधना के द्वारा तीर्थकरत्व प्राप्त किया। हो सका । यह है उनका सर्व कल्याणकारी मंगल- तीर्थकरत्व की प्राप्ति के अनन्तर भगवान महावीर मय पावन स्वरूप जो जन जन के लिए अन्तः । लगातार तीस वर्ष तक निरपेक्ष भाव से जगत को प्रेरणा का मूल स्रोत है। आत्म शुद्धि और अात्म कल्याण का पावन उपदेश देते रहे। वर्धमान के समक्ष प्रात्म शुद्धि का एकमात्र प्राणिमात्र के कल्याण के लिए तीर्थकर महामहान लक्ष्य था। यही कारण है कि संसार के अन्यान्य भोतिक पदार्थ तथा भोग विलास के वीर की दिव्य वाणी का यह उद्घोष था कि विविध साधन उन्हें अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर जीवमात्र में स्वतन्त्र आत्मा का अस्तित्व विद्यमान हाय है। प्रत्येक जीव को जीवित रहने और प्रात्म का वैभव विखरा पड़ा था, किन्तु उन्होंने इस वैभव स्वातन्त्र्य का उतना ही अधिकार है जितना दूसरे की नश्वरता, निःसारता और नीरसता को अपने को है । अतः स्वयं जियो और दूसरों को जीने दो। सहज प्रसूत ज्ञान गाम्भीर्य से समझ कर उसे इस जिस प्रकार अपने जीवन में कोई बाधा तुम्हें सह्य प्रकार छोड़ दिया था जैसे-कोई बीर्ण तृण को नहीं है उसी प्रकार दूसरों के जीवन में भी बाधक छोड़ देता है । उनके जीवन को ऐसी असाधारण मत बनो । धर्म के वाह्य आडम्बरपूर्ण क्रियाकलापों, सुविधाएं उपलब्ध थीं जिनका नसीब होना सच- मिथ्यावाद और रूढ़िगत परम्पराओं में मत फैसो । मुच दुर्लभ है । किन्तु ये समस्त साधन सुविधाएं अपनी प्रात्मा का स्वरूप और उसकी-स्वतन्त्र सत्ता अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने से उन्हें न रोक पहचानो, वही सच्चा धर्म है। सहज क्रिया मात्र सकी और अपने निकटतम परम स्नेही बंधु-बांधवों, धर्म नहीं है, वह तो उसका । परिजनों एवं प्रजाजनों के अनुरोध-प्राग्रह, अनुनय बाह्य रूप भी उसे तब कहा जा सकता है जब विनय और प्रार्थनाओं के वावजूद भी उन्होंने तप अात्मा के भीतर वास्तबिक धर्म की प्रतिष्ठा हो । स्वी जीवन की कठोरताओं को सहज भाव से धर्म एक त्रिकालावाधित सत्य है, वह कोई संकस्वीकार किया। चित दायरा नहीं है । जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, लिंग, योनि, क्षेत्र और काल की मर्यादाएं उसे बांध नहीं - निरन्तर बारह वर्षे तक सतत साधना, कठोर- सकतीं और न ये समस्त भाव उसकी मकर तम तपश्चरण एवं एकाग्र चित्तवृत्ति ने उनकी सकती है । यथार्थ रूप से सम्यश्रद्धा, सम्यकज्ञान 1/27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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