SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर महावीर और उनके धर्म का सर्वोदय स्वरूप [] श्राचार्य राजकुमार जैन एम० ए० ( हिन्दी-संस्कृत) एच. पी. ए.. दर्शनायुर्वेदाचार्य धर्म हवा पानी की भाँति मुक्त है । किसी जाँति -पाँति, ऊँच-नीच, धनी गरीब आदि के भेद भाव में इसे नहीं बाँध सकते । मानव की तो बात ही क्या सर्व जीवजगत का कल्याणकारी तत्व इसमें समाया हुआ है । मानवता की सीमायें भी इसके लिये छोटी पड़ती है। इसकी प्राप्ति निराग्रही अनेकान्तिक दृष्टि वाले व्यक्ति को ही हो सकती है अन्य को नहीं । महावीर की सर्वोदय स्वरूप धर्म देशता के सम्बन्ध में लेखक के उच्च विचार कुछ नये नहीं हैं - जाने-माने हैं, पर पुनः पुनः पठनीय, मननीय है और तब ही हम प्राशा कर सकते हैं कि वे हमारे उतरेंगे । व्यवहार में, प्राचरण में द्वादशवर्षीय कठोरतम तपश्चरण के अनुष्ठान के द्वारा वर्धमान ने ग्रात्मा को विविध योनियों में भटकाने वाले चतुविध धातियां कर्मों का क्षय करके क्रोध - मान-माया-लोभ इन चार कषायों तथा अन्य ईर्ष्या, भय, जुगुप्सा आदि आन्तरिक शत्रुत्रों पर विजय प्राप्त की । संसार के सर्वाधिक चंचल प्रकृति वाले और अत्यन्त कठिनता से वश में किए जाने वाले मनको आत्मा के श्रभिमुख केन्द्रित करके उसकी समस्त बाह्य प्रवृत्तियों को अवरुद्ध कर एकाग्र चित्त द्वारा मुनि वर्धनाम ने जिस साहस, दृढ़ता एवं वीरता का परिचय दिया तथा जिस अभूतपूर्व दृढ़ता से उन्होंने अपने कठोरतम तपश्चरण के द्वारा दुर्जेय कर्मों पर विजय प्राप्त की उससे वे 'महावीर' नाम से जगद्विख्यात हुए । इसके प्रति Jain Education International रिक्त दुर्जेय राग-द्वेष आदि विकार भाव तथा क्रोध - मान-माया-लोभ इन चतुविध कषाय रूप आन्तरिक शत्रुओं के निराकरण में विक्रान्त, शूर एवं महान वीर होने से 'महाबीर' कहलाए । महावीर तीर्थंकर थे । तीर्थंकर वह होता है जो संसार के भव्य जनों को संसार सागर से तार देता है, पार लगाता है। महावीर के कल्याणकारी उपदेशों ने अनेक भव्य जीवों को भव सागर से पार कर दिया । अपने विशिष्ट ज्ञान दर्शन के आधार पर महावीर तीनों लोक के समस्त जीवों के सम्पूर्ण भावों और सभी अवस्थानों को जानने व देखने लगे थे । अतः महावीर अर्हत्, केवली, जिन, सर्वज्ञ और सर्वभावदर्शी बनने के पश्चात् तीर्थंकर महावीर कहलाए । यह तीर्थंकरत्व उन्हें बारह वर्ष की 1/26 -सम्पादक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy