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________________ भी स्वीकार करता है; क्यों कि बिना बात्मा को माने मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता है और उनकी व्याख्या भी नहीं हो सकती है। विशुद्ध प्रकृतिवाद में मानवीय मूल्य-सत्यं शिवं सुन्दरम् आदि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है और न तो करूणा, सेवा इत्यादि की कोई गुंजाइश रह जाती है। प्राध्यात्मिक मूल्यों की व्याख्या के लिए प्रकृति से भिन्न ग्रात्मा को मानना आवश्यक है, इसलिए जैन दर्शन पुद्गल के सांच जीव की सत्ता भी स्वीकार करता है और मानता है कि चेतना जीव का लक्षण है, जब कि पुद्गल प्रचेतन है। जैन दर्शन में जीव की व्यापक धारणा है। जीव को जीवन के साथ एकीकृत किया नया है और जहां कहीं भी जीवन है, वहां जीव की कल्पना की गई है। इसलिए मनुष्य से वनस्पति पर्यन्त जीव का विस्तार माना गया है, और स्वाइजर के "रेवरेन्स फॉर लाइफ" की धारणा के अनुरूप जीव मात्र के प्रति करुणा को प्रादर्श माना गया हैं, क्योंकि परस्पर सहयोग जीव की विशेषता है । (परस्परोपग्रहों जीवानाम् ) जैन दर्शन अन्य मानववाद की भांति मनुष्य को ही सर्वोपरि मानता है। यह मनुष्य से ऊपर किसी ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता, क्योंकि यदि के कर्मों का नियंता किसी ईश्वर को मनुष्य मान लिया जाय, तो मनुष्य की अपनी स्वतन्त्रा छिन जाती है। सात्र की भांति जैन दर्शन मानवीय स्वतन्त्रता का पोषक है और इस कारण यह ईश्वर की सत्ता का निषेध करता है। इसके अनुसार यदि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगता है तो ईश्वर की कोई प्रावश्यकता नहीं हैं और यदि ईश्वर ही मनुष्य के कर्म का फल दाता है, तो उसका अपना कियागया प्रयत्न निरर्थक है, अतएव जैन दर्शन विधान को मानता है और विधाता का निषेध कर देता है। इसके अनुसार कर्म सिद्धान्त स्वयं शुभ, अशुभ सफलता असफलता की व्याख्या Jain Education International करने हेतु पर्याप्त है, प्रतएव ईश्वर को मानमा निरर्थक है । साथ ही साथ जैन दर्शन काण्ट की भांति " साध्यों के साम्राज्य" में विश्वास करता 1 इसके अनुसार प्रत्येक जीव ईश्वर है क्योंकि सबों में अनन्त पूर्णता विद्यमान है । ( अप्पा सो परमम्या) जीव ईश्वर है B प्रात्मा परमात्मा है, किसी एक धनन्त सत्ता की अभिव्यक्ति या अंश होने के कारण नहीं, बल्कि स्वयं में अनन्त पूर्णता या अनन्त चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द) से विभूषित होने के कारण। चूंकि हर जीव स्वयं ईश्वर है, इसलिए प्रत्येक जीव अनन्त शक्ति और संभावनाओं से युक्त है, जिसका विकास करना प्रत्येक मानव का लक्ष्य है । जैन धर्म मनुष्य को ही सर्वोपरि मानता है । इस कारण इसमें किसी ईश्वर के समक्ष समर्पण करने या घुटने टेकने को धर्म नहीं माना गया है, बल्कि सक्रियता और पुरुषार्थ का समर्थक होने के कारण इसे " श्रमण धर्म" कहा गया है। यह माना गया है कि श्रम करने से ही कोई भ्रमण हो सकता है । ( समयाये समरणो होई) " ऐसा मानकर यह स्वयं को समर्पणवादी वैदिक धर्म और विश्रांतिवादी उपनिशदिक रहस्यवाद से पृथक करता है, और लोक एवं कर्म को वास्तविक मानते हुए पूर्ण सक्रिय जीवन की देशना देता है। इसके अनुसार मनुष्य स्वयं अपने राग-द्वेश के बन्धन में बधा हुधा है। अतएव मात्र वीतरागता से ही वह मोक्ष को उपलब्ध हो सकता है । मनुष्य की अपनी प्राकांक्षा और राग ही उसे जगत से बांधते हैं मौर इसके कारण ही दुर्बल होकर वह देवी-देवतानों 5. प्रश्न व्याकरण सूत्र 6. उतराध्ययन सूत्र 1/23 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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