SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चार साधना मार्ग या धर्मों को जोड़ देने से नवपद बन जाते हैं। इसमें महंत व सिद्ध देव पद में है। प्राचार्य, उपाध्याय, साधु गुरु पद में व दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप धर्म पद में है इसलिए देव, । गुरु व धर्म इन त्रिपुटी का समावेश इस नव पद में हो जाता है। इसी तरह महंत व सिद्ध हमारे साध्य हैं, आचार्य, उपाध्याय साधक हैं और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ये साधन व साधना है | नवपद में साध्य अर्थात् ध्येय साधक अर्थात् ध्याता, साधना, अर्थात् ध्यान इन त्रिपुटियों का भी समावेश हो जाता है । इसलिये इस नवपद को सिद्धचक्र कहते हैं। एक गोलाकर चक्र बनाकर उसके बीच में महंत उसके ऊपर सिद्ध महंत की दाहिनी और पास में प्राचार्य, नीचे उपाध्याय व दाहिनी और साधु, इस तरह पंच परमेष्टि के बीच के चारों पदों के बीच में दर्शन, ज्ञान, चारित्र चार पदों को लिखकर नवपद यंत्र या सिद्ध चक्र का गट्टोजी बनता हैं । इस यंत्र के सामने बैठकर या इसे अपने हृदय कमल पर स्थापित करके ध्यान किया जाता है । श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में कुछ भेद के साथ इस सिद्ध चक्र की आराधना या साधना की जाती है। यह भी जैन धर्म की एक विशिष्ट ध्यान की प्रणाली रही है । भगवान् महावीर चौबीसवें या अन्तिम तीर्थंकर थे, जिनकी वाणी आज भी मोक्ष मार्ग की घोर प्रवृत्त करती हैं । उन्हीं का धर्मशासन ग्राज चल रहा है। जिसकी छत्र-छाया में हजारों साधु-साध्वी व लाखों श्रावक-श्राविकाएं प्रात्मिक-धर्म की आराधना करते हुए सिद्धि या मुक्ति के प्रति गतिशील हैं। प्रत्येक क्रिया में कायोत्सर्ग-ध्यान किया जाता है और ग्राभ्यंतर तप में भी स्वाध्याय व ध्यान का प्रमुख स्थान है । पर ज्यों-ज्यों साधु-साध्वी उद्यानों, जंगलों, गिरि-गुफाओं में रहना छोड़कर नगरों में, गाँवों में रहने लगे एवं लोक सम्पर्क बढ़ता गया, त्यों-त्यों ध्यान की साधना कमजोर पड़ती गई । बाह्य प्रवृत्तियों में मन इतना व्यस्त व अभ्यस्त हो गया कि मन एकाग्र एवं स्थिर नहीं हो पाती, जो ध्यान के लिए बहुत ही आवश्यक है । Jain Education International इधर कुछ वर्षो से सारे विश्व में ध्यान के प्रति प्राकर्षरण बढ़ता जा रहा है क्योंकि परिग्रह की वृद्धि, सुख-सुविधाओं की कामना और भौतिक आकर्षण आदि के कारण जीवन में उत्तरोत्तर अशांति बढ़ती जा रही है । अतः शांति की अभिलाषा या लालसा बढ़ना स्वाभाविक है । शांति का सबसे प्रमुख उपाय है ध्यान, क्योंकि इसमें मानसिक चंचलता में संवर संग्रह, ममत्व पर अंकुश लगता है। भटकते हुए मन को स्थिर व एकाग्र होकर भगवान् में या प्रात्मचिंतन में टिकाव होता है, तब गहरी शांति का अनुभव होता है। शांति में ही सुख है, प्रशांत को सुख कहां ? । जैन धर्म में सभी जो ध्यानाभ्यास छूट सा गया था, उसे पुनः चालू करना बहुत आवश्यक समझ कर ध्यान के विषय में विशेष चिंतन व प्रवृति करना प्रारम्भ हुआ है। मैंने भी इस विषय पर काफी चिंतन किया है । अन्य धर्म सम्प्रदायों व व्यक्तियों द्वारा जो ध्यान प्रणालियां चालू हैं, उनको भी जानने समझने का यथाशक्ति प्रयास किया है। मेरे अनुभवी गुरु पूज्व सहजानंदधनजी से मुझे कुछ जानकारी व प्रेरणा मिली है । इन सब के आधार से मैंने प्राथमिक और सरल ध्यान पद्धति पर कुछ चिंतन किया है जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपनाते हुए अच्छी प्रगति कर सकता है । भगवान् महावीर का 1211 वर्षों का साधनाकाल प्रधानतया ध्यान में ही बीता । ध्यान के साथ, संबर व मौन तो हो ही जाता है । इसलिये महावीर की साधना प्रणाली में ध्यान का सबसे ऊंचा स्थान रहा । आवश्यक व चैत्यवरण की 1/13 हमारे पथ दर्शक में कायोत्सर्ग पांचवां भावश्यक है। उसमें ध्यान का समावेश था ही, पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy