SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तोड़ कर एक मात्र निज आनन्द धाम से ही संबंध चैतन्य तत्व की इस अभेदात्मक अनुभूति में रूप है यह सम्यग्दर्शन चैतन्य तत्व के प्रति ही चैतन्य तत्व का स्वाभाविक आनन्द का अनुभव 'प्राशिक' होने की चरमोत्कर्ष स्थिति का नाम है होता है जोकि एक समय के अनुभव से ही सारे जिसमें कि यह स्वयं को अत्यन्त भूल जाता है और जगत के अनुभवो को फीका सिद्ध कर देता है । स्वयं को चैतन्य तत्व रूप अनुभव करता है । यद्यपि यह सम्यग्दर्शन स्वयं चैतन्य तत्व से मात्र इस तरह भगवान महावीर का वास्तव में यह 'अहं' की मान्यता रूप है यह तो हुआ इसका कितना वैज्ञानिक एवं विलक्षण चिन्तन है जो कि तात्विक पक्ष । इसके भावनात्मक पक्ष पर विचार जगत के जीवों को आमन्त्रण देता है कि भाई इस किया जावे तो यह अपने लिए चैतन्यतत्व का 'अहं' पर से परम निरपेक्ष मार्ग को स्वीकार कर अपने नहीं मानता बल्कि 'मैं' स्वयं चैतन्य तत्व हूँ। दयनीय दिनों को मिटाकर एक अभूतपूर्व जीवन ऐसा मानता है। इस भेद से पार अत्यन्त अभेद जियो जिससे कि सारी बृत्तियों का दरिद्रपन एवं की अनुभूति रूप सम्यग्दर्शन हैं जिसमें कि वस्तु मृत जीवन समाप्त होकर एक नये आनन्द का व्यवस्था का तनिक भी घात नहीं है। सुप्रभात हो जो कि कभी क्षय को प्राप्त नहीं होता। 5/11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy