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________________ से रहा जासका। इसके अलावा दूसरा कोई उपाय निज-चैतन्य तत्व की समझ के अभाव में ही भी नहीं था, न है और न रहेगा। इस अक्षय परकर्तृत्व की अनधिकृत चेष्टानों रूप विकल्पों आनंद सत्ता की समझ और सुलभता के अभाव में की उत्पत्ति होती है और जब यह आत्मा आनंद या तो उपसर्गकर्ता को भगाने की कोशिश की धाम प्रात्मा का ख्याल करता है तब यह पर जायेगी या स्वयं भागने की कोशिश की जायेगी। कर्तृत्व के विकल्प जागने की अवस्था में नींद यदि लज्जावश या लाजवश शरीर में भगवान की भांति भाग जाते हैं। होगा तो कम से कम अपनी अक्षय पानंद सत्ता सेच्युत होकर के उपयोग तो जरूर भोगेगा इसके इस तरह निजपूर्ण सत्ता के आधार पर ही अलावा कोई गति नहीं होगी। भगवान महावीर ने सारे विकारों की जननी परकर्तृत्व की भावना को त्यागा और इसके प्रभाव इस प्राध्यात्मिकता के अभाव में वैराग्य और में इसकी सन्तानरूप सारे विचारों का भी क्षय अकतत्व की बात मात्र विकल्पों के आधार पर ही होगया। भगवान महावीर ने अपनी करतूतों से होती हैं जो कि अध्यात्मरस के बिना शुष्क और। हमको भी यह दिशा-बोध दिया कि चैतन्य की शांति शांति के समाधान देने में हार खाती है। और आनंद चैतन्य में ही है और बाहर में नहीं, महावीर ने जहां एक ओर प्रत्यक्ष तथा युक्ति, आखिर ये बाहर में हों तो-हों क्यों ? जब न्याय, तर्कादि प्रमाणों से यह बताया कि प्रात्मा चैतन्य आत्मा स्वयं एक सत्ता है, तब वह पर सत्ताओं से निरपेक्ष रहती है तो उसका प्रानंद और एक तिनके के दो टुकड़े नहीं कर सकता है वहां दूसरी ओर यह भी बताया है कि तुम्हें पर में शांति पर के आश्रित हो तो कैसे ? अर्थात् नहीं हो सकता है। क्योंकि-"पर से चैतन्य का द्रव्यगत करने के विकल्प करना पड़े ऐसी कभी भी तुम्हारे । भेद होने से ग्रानंन्द के भोगने में यह मित्रता बाधक स्वभाव में नहीं है । इस तरह निज अक्षय आनंद पूर्ण सत्ता के आधार पर अर्थात् एक हाथ में बड़ी है। इस तरह पर में आनंद की कल्पना कभी भारी पूर्ण सत्ता देकर दूसरे हाथ से परकर्तृत्व __ साकार नहीं हो सकती है । की रुचियां एवं भ्रम छुड़ाये हैं। यह पर का कर्तृत्व कोरे (शुष्क) ज्ञानमात्र के समाधान देकर इस तरह भगवान महावीर का दिग्दर्शन नहीं, वरन् आनंद एवं शांतिस्वरूप निज तत्व देकर का केन्द्र एकमात्र निज पूर्ण आनंदसत्ता ही था जिसकी गोद (अंचल) में चतन्य की आनंद सहित छुड़ाया है। यह ही अध्यात्म है। वृत्तियां प्रानंद, शांति और बल का जीवन महावीर अपने जीवन से यही दिशाबोध देना जीने की कला सीखकर अपने चिर संचित चाहते थे। क्योंकि जिसे जो इष्ट होता है उसी अरमानों को साकार करके अपनी अनादिको वह प्राप्त करके दूसरों को भी देना चाहता है। कालीन दुःखी, दरिद्र और दयनीय दशा को भगवान महावीर ऐसे ही महान आत्मा थे जिन्होंने मिटाया है। यहीं से चैतन्य के जीवन की वास्तचैतन्य की शांति को लीक से हट कर चैतन्य के विक शुरूआत होती है । चैतन्य के जीवन का यह तल में ही तलाश और उस शांति को तलाश करके एक मार्मिक स्थल है इसे ही जैन शब्दावली में पर कर्तृत्व के निरीह मूर्खता के प्रतीक रूप 'सम्यग्दर्शन' शब्द में अभिहित किया जाता है जो विश्वासों, बुद्धियों एवं आचरणों को सहज में ही कि जगत की अपने से भिन्न समस्त सत्ताओं को त्याग दिया और जगत को भी यह बताया कि ठुकरा करके उनसे अपने पूर्वानुभूत सम्बन्धों को 5/10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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