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________________ अर्थात "सोने और कांच में, मित्र और शत्रु में, सुख और दुःख में, वन और उपवन में, प्रासाद और पर्णकुटी में न ममता हो और न खेद हो - साम्यभाव है" । जब निज परमानन्द स्वरूप आत्मा का लक्ष्य करके जो पर में उपर्युक्त समता बाह्य में देखी जाती हैं उसे व्यवहार से साम्यभाव कहते हैं किन्तु जो स्वभाव से च्युत्त होकर पर में साम्यभाव करता है उसे तो उपाचार से भी अभिहित नहीं कर सकते हैं । 1 यथार्थ में तो साम्यभाव सम्यग्दृष्टि षट्सप्त गुण स्थानों में झूलने वाले मुनिराजों के ही होता है । और जब ये अपने शुद्ध भाव से च्युत होकर स्वरूप से बाहर जाते हैं तो उसे व्यवहार से समताभाव कहते हैं। क्योंकि किसी कवि ने लिखा भी है कि "वावे न समता सुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरै" । ऐसे मुनिवर जिनकी उपयोग रूपी लगाम एक शायक निजात्मा पर है उनके सिर चाहे सर्प डोलें, Jain Education International अग्नि की सिगड़ी जलावें, चाहे शेर अाक्रमण करें, चाहे भोले-शोले बरसे चाहे मगरमच्छों से भरे समुद्र में फेंक दिया जावे, इत्यादि अनेकों उपसर्ग आने पर, यहां तक कि वर्तमान पर्याय के तहसनहस हो जाने पर भी वे अपने स्वभाव से च्युत नहीं होते और उसी समय अनन्त धनन्त सुख और शान्ति का संवेदन करते हैं; कितनी अलोकिक एवं पारमार्थिक बात है कि अपने स्वभाव में लग्न हैं इसलिए उनके निश्चय से साम्य भाव निरंतर है। इस प्रकार हम भी शुभाशुभ विभावाभावों से रहित शुद्ध भाव स्वरूप समता स्वभावी निज चैतन्यरांयक आत्मा को श्रद्धान, ज्ञान और उसी रूपाचरण करके अनन्त सुख शांति को प्राप्त कर सकते है । समता का जो वरण करना जानते हैं । जो स्वयं का आत्मवल पहिचानते हैं ॥ वे जन्म मरण को मूल से उखाड़ते हैं । निश्चय ही वे साम्य भाव प्रकाशते हैं ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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