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________________ शुद्धभाव बनाम साम्यभाव 0 कैलाश मलैया 'शास्त्री' टोडरमल सिद्धान्त महा वि० ए-५, बापू नगर, जयपुर साम्य भाव को सभी धर्मों ने स्वीकार सुख है या जो सुखमय है उसको भूलकर सुखाभासों किया है। किन्तु उसका यथार्थ स्वरूप अवगत न में हम भटक गये हैं । मृग-मरीचिकाक्त् । क्योंकि होने से समानता को ही समताभाव मान बैठे हैं। समानता का विषय ही पर है और समता का इस कारण समताभाव का जो फल है उससे वंचित विषय निज अखण्ड त्रिकाली ज्ञायक आत्मा है। रह जाते हैं। जिन्होंने अपने स्वभाव को जान पर में समानता का भाव ममत्व है। एकत्व-बुद्धि लिया है वे मोक्षलक्ष्मी का वरण कर चुके हैं- है। जो अपने प्रात्मा में प्रादुर्भूत होता हया भी "शिवनारि वरौं समताधरिकें"। हमें भीपंच परावर्तन नैमित्तिक होने से विभाबभाव हैं। शुभाशुभ आदि का अभाब करके अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हेतु विभाव वन्ध के कारण होने से अपने आत्मा का साम्यभाव का यथार्थ स्वरूप समझना ही होगा। अत्यन्त निषेध करने वाले हैं। इसलिए हमें शुभा समानता दो या दो से अधिक द्रव्यों में होती शुभ विभाव भावों से रहित साम्यभाव या शुद्ध भाव है किन्तु समता तो निज चैतन्य आत्मा का स्वभाव ही उपादेय भूत है। जिसको लक्ष्यगत करने से भाव है, क्योंकि इसका प्रात्मा में अविनाभाव शांति एवं सुख की कालिंदी फूट पड़ती है। तादात्म सम्बन्ध हैं। दो, चार, पाठ आदिक समता किसी दूसरे पर की नहीं जाती है बल्कि संख्यायें सम हैं। यह संख्यानों में समानता है। एक राजा अपने राज्य में सभी को प्रार्थिक दृष्टि स्वभाव को लक्ष्यगत करते ही पर्याय में समता से समान देखना चाहता है। मुख्य मंत्री देश में । प्रगट हो जाती है। वैसे पुरुषार्थ सिद्धि-उपाय में वों को, एक धर्मात्मा अपने धर्म को, राजनीतिज्ञ कहा है कि --- अपनी राजनीति को, कोई भाषानों को विश्व में "इदमावश्यकं षटकं समतास्तव वन्दना प्रतिषमान रूप से क्रियान्वित करना चाहता है। यह क्रमणम् यहां पर भी समता स्वभाव को लक्ष्यगत मानव जगत में समानता है। यदि समानता सभी करो ऐसा उपदेश दिया है। क्योंकि समता कोई में इच्छानुसार कदाचित हो भी गयी तो क्या हमें बाहर से तो क्रय प्रादि करके ली नहीं जाती बह सख की प्राप्ति हो जायेगी? नहीं, नहीं. कदापि तो स्वभावगत है । नहीं। जो इस प्रकार साम्यवाद की बात समूचे यद्यपि व्यवहार में ऐसा कहने को पाता है किविश्व में धर्म की, राजनैतिक भाषा की विभिन्नता दुःखे सुखे वैरिणि बन्धु वर्ग होने पर भी समानता देखने की चेष्टा की जाती योगे वियोगे भवने वने वा । है. तब भी सभी सुखान्वेषण में यत्र तत्र सर्वत्र निराकृता शेष ममत्व बुद्धदिखाई दे रहे हैं। इससे ज्ञात होता है कि जिसमें समं मनोमेऽस्तु सदापि नाथ ।। 517 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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