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________________ 'क' वर्ग में प्रथम घोषित निबन्ध महावीर का हिंसा सिद्धान्त कुमारी मंजु भण्डारी VIII श्री श्वे० जैन सुबोध बालिका उ० मा० विद्यालय जयपुर "अहिंसा" भारतीय संस्कृति का प्रारण भूत तत्व है । भारतीय चिन्तन के रोम-रोम में अहिंसा का तत्व समाया हुआ है । इसकी उपलब्धि उन्हें मां के दूध के साथ ही हो जाती है। यहां का वातावरण, अहिंसा का वातावरण है। यहां की वायु, अहिंसा की वायु हैं । जो व्यक्ति भारत में श्वास लेगा, उसके जीवन में न्यूनाधिक अहिंसा तत्व अवश्य ही प्रवेश करेगा । आदि तर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव से लेकर आज दिन तक यदि भारतीय संस्कृति में कोई मौलिक स्वर्ण-सूत्र अनुस्यूत हुआ है तो वह अहिंसा ही है । इस सूत्र में ही विश्व के समस्त धर्मों का समन्वय और संगम हो सकता है । अहिंसा का सिद्धान्त बड़ा व्यापक और विशाल है । इसकी परिधि के अन्तर्गत समस्त धर्म और समस्त दर्शन समवेत हो जाते हैं । यही कारण है। कि प्रायः सभी धर्मों ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है । हमारे यहां के चिन्तन में समस्त धर्म सम्प्रदायों में, अहिंसा के सम्बन्ध में, उसकी महत्ता और उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नहीं हैं, भले ही उसकी सीमाएँ कुछ भिन्न-भिन्न हों कोई भी धर्मं यह कहने के लिये तैयार नहीं है कि झूठ बोलने में धर्म है, चोरी करने में धर्म है या ब्रह्मचर्य सेवन करने में धर्म है । जब इन्हें धर्म नहीं कहा जा समता तो हिंसा को कैसे धर्म कहा Jain Education International जा सकता है ? अतः किसी भी धर्म-शास्त्र में हिंसा को धर्म और हिंसा को अधर्म नहीं कहा है । सभी धर्म अहिंसा को परम धर्म स्वीकार करते है, और यही कहते हैं । "अहिंसा परमो धर्मः " पच्चीस सौ वर्ष पूर्व आर्यावर्त्त के महामानव भगवान महावीर ने अहिंसा के लिये हिंसा के प्रति खुला विद्रोह किया । यज्ञ, पशुवलि व दासप्रथा के रूप में जब शोषण का दौरदौरा चल रहा था तब अहिंसा को नया बेग, नया प्रारण व नई परिभाषा देने के लिये महावीर व बुद्ध ने सम्पूर्ण मानव प्रति को करुणा का संदेश दिया सब्ब जग जीव एक्खरण दय ठ्याए भगवा सुकहियं पवयां अर्थात् समस्त प्राणी जगत् की रक्षा के लिये दया व करुणा का प्रवचन भगवान् ने किया । वह एक ऐसा युग था जब मानव शोषण अपराध नहीं माना जाता था । गुलामी को मानवीय कर्तव्य करार दिया गया था । बुद्ध व महावीर ने अहिंसा के रूप में सारे समाज में व्यापक क्रान्ति की लहर फैला दी । ग्रहिंसा और धर्म के नाम पर हिंसा का जो नग्न नृत्य हो रहा था, जन-मानस को भ्रान्त 5/4 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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