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________________ पाया गया है जबकि सादा-सात्विक भोजन करने को मित्र बनाकर इनके चंगुल में फंसता जा वालों में रोगों का प्रतिशत अल्प है । रहा है। आयु अतिमूल्य से परे हैं । संसार की विपणी इसी क्रम का दूसरा चरण जल-सेवन का है। में सर्वस्व मिला है परन्तु प्राय नहीं मिल सकती हैं। आयूर्वेद में तो जल के प्रकार, पीने योग्य व पीने कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम इसकी वृद्धि का उपाय के लिये अयोग्य जल के बारे में विशद वर्णन किया नहीं जानता । कोटि स्वर्ण देकर भी आयु का एक गया है । जैनाचार में जल को भली-भाँति छानकर क्षण नहीं खरीदा जा सकता । यह अमल्य है, यदि पीने के निर्देश दिये गये हैं। बर्तमान में तो इसे इसे ऐसे ही गंवा दिया तो इससे बढ़कर हानि जैनत्व का चिह्न मानने लगे हैं। कुछ समय पूर्व और क्या हो सकती है ?" अाजकल रोजाना नये की संयक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया था कि अस्पताल खोले जा रहे हैं, पुराने अस्पतालों में प्रनछने पानी से उत्पन्न रोगों के कारण सम्पूर्ण शैयायें बढ़ाई जा रही हैं। रोगों पर विजय कसे विश्व में प्रतिवर्ष पचास लाख मानव रोग ग्रस्त प्राप्त हो इसके लिये अनेकों वैज्ञानिक अनुसंधानहो जाते हैं जिनमें से अनेकों मौत के मह में भी रत हैं, करोड़ों रुपया खर्च हो रहा है पर फिर भी र पहुंच जाते हैं। रोग बढ़ते ही जा रहे हैं। दुःख तो इस बात का इसी क्रम की अगली कड़ी है, रात्रि भोजन है कि इस भौतिकवाद की चमक-दमक और मशीत्याग । महात्मा गांधी की पुस्तक गांधी विचार नीकरण से प्रभावित होकर हम हमारे ही नियमों को, हमारी चर्या को, हमारी जीवन-पद्धति को दोहन में लिखा है कि-जब से मैंने रात्रि भोजन त्याग दिया-मैं अनेकों परेशानियों से बच गया है। भूल रहे हैं जो कि हमें सौभाग्य से वरदान रूप में, सत्य है, अाखिर पेट को भी तो कुछ विश्रांति हमारे पूर्वजों से, धर्माचार्यों से बिरासत रूप में चाहिये । प्रातः सोकर उठने के पश्चात् रात्रि में मिली है । वह ज्ञान, आरोग्य का मूर्तिमान स्वरूप सोने तक कभी कुछ कभी कुछ खाते ही रहेंगे तो है जो जनाचार या जैनधर्म के नाम से माना जाता स्वस्थ कैसे रहेंगे ? अधिक खाने वाला और अनि- है। जिस प्रकार ठण्डी हवा का कोई मकान या गांव नहीं होता, सूर्य की किरणों का कोई महल यमित खाने वाला हमेशा रोगी ही बना रहेगा। या झोपड़ी नहीं होती, बच्चे की मुस्कान का कोई संसार की कोई वस्तु ऐसी नहीं जो काल के सम्प्रदाय नहीं होता उसी प्रकार जैनाचार किसी प्रभाव से अछूती रह जाये। वर्तमान में भौतिक- एक सम्प्रदाय को ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के बाद व सिनेमा सभ्यता के अन्धानुकरण से मानव लिये उन सभी उपक्रमों की जानकारी प्रदान की धार्मिक आस्था हटती जा रही है परन्तु वह करता है जिनके पालन से सबका मंगल, सबका नहीं जानता कि किस प्रकार अनजाने में वह रोगों कल्याण संभव है, सर्वत्र शांति संभव है । प्रारोग्य भारती, जयपुर 4/24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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