SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5. शीतलप्रसाद जी ने पंचास्तिकायसार की टीका आर्थिक और धार्मिक-प्रबुद्धता, समृद्धि और यश तो. करते हुये लिखा है कि सद्य-प्रसूत बालक निष्पापी मिलता ही है साथ ही वह उस पथ का अनुगमन व अत्यन्त भोला होता है, बाद में उसे जैसे संस्कार स्वतः ही करने लगता है जिसके द्वारा वह अपने प्रदान किये जाते हैं वह वैसा ही बन जाता है। अभीप्सित को प्राप्त कर सके। मानव-स्वभाब की तीन मुख्य प्रकृतियाँ हैं-सात्विक, रोगों से प्रातुर होने से कैसे बचा जाये, सारे राजसिक व तामसिक । ये प्रकृतियां उचित व चिकित्सा-शास्त्रों में इसका विशद व विस्तृत विवअनुचित संस्कारों संयोग से बदल जाती हैं । सात्विक रण है। सारे रोगों को प्राश्रय देने वाला वह प्रवृत्ति वाला मनुष्य सर्वश्रष्ठ होता है। आरोग्य- शरीर है जिसका आहार-विहार मिथ्या है। इस शास्त्रों में वेग-विधारण शब्द का उल्लेख है । वेग- लिये आहार के बारे में जैनाचार में बहत व्यापक विधारण से तात्पर्य है-शरीर द्वारा सम्पन्न होने दृष्टि से विचार किया गया है। वाली शारीरिक क्रियायें जिनमें से कुछ शरीर भोजन विचारों पर व जीवन पर पर्याप्त द्वारा सम्पन्न होनी चाहिये और कुछ नहीं होनी प्रभाव डालता है। किसी ने बहुत सुन्दर शब्दों में चाहिये । इसी आधार पर उन क्रियाओं के दो भेद कहा है---- किये गये हैं-धारणीय वेग और अधारणीय वेग। "जैसा खाये अन्न वैसा होने मन अधारणीय वेगों को धारण करने से शरीर रोग- जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी"। ग्रस्त हो जाता है या अनेकों शारीरिक रोगों की इसी अाधार पर जैनशास्त्रों में भोजन का भविष्य में उत्पन्न हो जाने की संभावना बढ़ जाती बहुत नियमानुक्रम से वर्णन किया गया है । भोजन है । तथा धारणीय-वेगों को धारण न करने से को भी तामसिक, राजसिक व सात्विक अथवा मानव मानसिक रोगों से आक्रान्त हो जाता है, . निकृष्ट, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार का जीवन-धारा में विपर्यय पा जाता है और सारी बताया है । तामसिक भोजन शान्तिमय जीवन में क्रियायें गड़बड़ा जाती हैं। अत्यन्त निकृष्ट है । इससे प्रभावित हुआ मानव... जैनाचार में धारणीय वेगों को प्राणी शरीर मन अधिकाधिक निविवेक व कर्तव्य शून्य होता में धारण कर सके और रोगों के भय और दुःखों चला जाता है । वे स्वयं के साथ-साथ अपने पड़ोसियों से बच सके इसके लिये बड़ी सुन्दर व्यवस्था है। के लिये, समाज के लिये भी दुःखों व भय का कारण जीवन में दश धर्मो-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य- बने रहते हैं। उनकी आन्तरिक प्रवृत्ति का झुकाव संयम-तप-त्याग-पाकिचन्य-ब्रह्मचर्य का पालन अपराधों, हत्याओं, अन्य जीवों के शोषण व व्यभिबतलाया गया है। मनुष्य में क्रोध-मान-माया- चार प्रादि की ओर बढ़ती जाती है। राजसिक लोभ-हास्य-रति - अरति-शोक - भय-मैथुन आदि भोजन मनुष्य को विलासी व भोगी बनाता है। विकृतियों का जन्म होता. है और ये मानसिक मात्र इन्द्रियों का पोषण करना ही उसका एक रोगों को बढ़ावा देते हैं। दश धर्मों का पालन उद्देश्य रह जाता है। सात्विक भोजन का प्रभाव क्ति मानसिक रोगों व उपरोक्त ही जीवन में सरलता, सादगी, विवेक, कर्तव्यविकृतियों से आक्रान्त होने से बच जाता है, परायणता व सहिष्णुता उत्पन्न करने में समर्थ है । धारणीय वेगों को धारण करने में सफल हो तामसिक व राजसिक भोजन रोगों के जनक हैं। सकता है। इसी क्रम में, जैनाचार में श्रावक के वर्तमान युग में वैज्ञानिक अनुसंधानों से भली भांति लिये सप्त-व्यसन का त्याग अनिवार्य घोषित किया सिद्ध हो चुका है कि इन दोनों प्रकार के भोजन गया है । इनके त्याग से मनुष्य को सामाजिक, सेवन करने वालों में रोगों का प्रतिशत अधिक 4/23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy