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________________ राजस्थान की कतिपय संस्थायें 0 अक्षय जैन 'राजस्थान में समाज द्वारा जन सेवा' से सम्बन्ध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा व्यक्तिगत पत्रों में हमने सामग्री भेजने हेतु अपील प्रसारित की थी। प्राप्त सामग्री को लेखक ने संक्षिप्त रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है । यह हमारा प्रथम प्रयास है । भविष्य में सेवा के और कार्य भी, प्राशा है. सामने पायेंगे। - सम्पादक प्रकृति की स्वच्छन्द व सुरम्य लीला-स्थली सम्पूर्ण जीवन चिकित्सा को समर्पित करने वाले अरावली की पर्वत शृंखलाओं से आवेष्टित, कण जैन और उनके अन्यतम मित्र श्री महेन्द्रकुमार जी कण में स्वर्णाभा वाली मरुधरा ने हर युग में, राँवका, राजधानी के रोगियों के लिए धन्वन्तरी प्रताप, भामाशाह, पन्ना जैसी संतति को जन्म के अवतार रूप में विख्यात हैं। तथाकथित विशेदिया है। षज्ञ जिन रोगियों को निराश कर दे, उन्हें 'प्रारोग्य भारती' में वैद्य श्री सुशीलजी एक प्राशा आधुनिक इस आपाधापी के युग में राज की किरण दाता नजर आने लगते हैं । 'पआरोग्य नेताओं का चरित्र क्षीण हो गया है, छीना झपटी भारती' चिकित्सालय में वैद्य श्री सुशील जी व ही उनका व्यवसाय रह गया है, ऐसे में भी राज श्री महेन्द्रजी को दिखाने वाले रोगियों की लम्बीस्थान में यत्र तत्र नखलिस्तान की तरह वीर, लम्बी कतारे देखी जा सकती हैं। सारी चिकित्सा दानी और निस्स्वार्थ जन सेवकों की कमी नहीं है। निःशुल्क होती है। (क) आरोग्य के क्षेत्र में : गृहस्थ की व्याधियों की चिकित्सा के लिए जन सेवा का सबसे बड़ा माध्यम है-चिकित्सा। तो अनेक चिकित्सालय हैं पर व्रती, साधु व तपस्वी चिकित्सक सच्चे अर्थ में जन सेवक हो सकता है, जनों की चिकित्सा के प्रभाव को श्री सुशील जी ने यदि वह चिकित्सा को केवल व्यवसाय न समझे। ही समाप्त किया है। भारत में अपने ढंग की प्रान्त की राजधानी गुलाबी नगर जयपुर में अनेक एक मात्र संस्था "वैयावृत्य-भवन" में ऐसे प्रात्म धन्वन्तरी पुत्रों ने जन्म लिया है। असाध्य रोगियों साधकों की चिकित्सा ही नहीं अपितु पूर्ण सेवा के आर्तनाद से द्रवित होकर, राज्य सेवा से समय शुश्रुषा की जाती है। 'वैयावृत्य भवन' का संचालन से पूर्व मुक्ति लेने वाले वैद्य श्री सुशील कुमार जी श्री वैयावृत्य समिति जयपुर जो एक पंजीकृत संस्था जैन के नाम से प्राज कोई अपरिचित नहीं हैं। है, करती है। भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक 4/17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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