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________________ 20. महाकवि रइधू के काव्यों का सांस्कृतिक अध्ययन 21. महा कवि जयमित्रहल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व 22. छक्कम्मोपएस का सांस्कृतिक अध्ययन 23. अपभ्रंश काव्यों में संयुक्त छन्दों का तुलनात्मक अध्ययन 24. 14वीं शताब्दी के प्रतिनिधि अपभ्रंश काव्य अपभ्रंश की तरह हिन्दी में भी जैन विद्वानों समय ने पलटा खाया । जैन ग्रंथागारों के ताले ने उस समय लिखना प्रारम्भ किया जब उसमें खुलने लगे और विद्वानों का उस ओर ध्यान जाने कलम चलाना पांडित्य से परे समझा जाता था लगा। शनैः शनैः विद्वानों का जैन विद्वानों द्वारा तथा वे भाषा के पंडित कहलाते थे। यह भेदभाव रचित जैन कृतियों की ओर ध्यान जाने लगा। तो महाकवि तुलसीदास एवं बनारसीदास के बाद मिश्रबन्धु विनोद में कुछ जैन रचनाओं का परिचय तक चलता रहा । हिन्दी में सर्व प्रथम रास संजक दिया गया लेकिन स्वयं जन विद्वान् भी अपने रचनाओं में काव्य निर्माण प्रारम्भ हुआ। जब विशाल साहित्य से अपरिचित रहे । सर्व प्रथम अपभ्रंश भाषा का देश में प्रचार था तब भी जैन स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमी ने हिन्दी जैन साहित्ग कवियों ने अपनी दूरदर्शिता के कारण हिन्दी में की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया। सन भी लेखनी चलाई और साहित्य की सभी विधानों 1947 में कामताप्रसादजी ने हिन्दी जैन साहित्य को पल्लवित करते रहे। जिनदत्तचरित (सं० का संक्षिप्त इतिहास और सन् 1956 में 1354) एवं प्रद्युम्नचरित (सं० 1411) जैसी डा० नेमीचन्द्र शास्त्री का हिन्दी जैन साहित्य परिकृतियां अपने युग की प्रथम पुस्तक हैं। महापंडित शीलन (दो भागों में) प्रकाशित हुए। इसी बीच राहुल सांकृत्यापन ने प्रद्युम्न चरित को ब्रज भाषा । महापंडित राहुल सांकृत्यापन ने स्वयम्भू के का प्रथम महाकाव्य बतलाया है। जैन कवियों ने पउमचरिय को हिन्दी का प्रथम महाकाव्य घोषित हिन्दी की सबसे अधिक एवं सबसे लम्बे समय तक करके जैन हिन्दी साहित्य के महत्व को स्वीकार सेवा की और उसमें अबाध गति से साहित्य निर्माण किया और हिन्दी जगत को उसे स्वीकार करने का करते रहे। लेकिन हिन्दी के विद्वानों को जैन आग्रह किया। लेकिन इतना होने पर भी अनेकान्त, ग्रन्थागारों तक पहुंच नहीं होने के कारण वे उसका जैन सिद्धान्त भास्कर, वीरवाणी, सम्मेलन पत्रिका, मूल्यांकन नहीं कर सके और जब हिन्दी साहित्य परिषद पत्रिका प्रादि में विभिन्न लेखों के प्रकाशन का क्रमबद्ध इतिहास लिखा जाने लगा तो जैन के अतिरिक्त जैन विद्वानों द्वारा रचित काव्य कृतियां ग्रंथाकारों में संग्रहीत विशाल हिन्दी साहित्य को यह सुसम्पादित होकर हिन्दी जगत के समक्ष प्रस्तुत लिवकर साहित्य की परिधि से बाहर निकाल दिया नहीं की जा सकी। इस दृष्टि से साहित्य शोध गया कि वह केवल धार्मिक साहित्य है और उसमें विभाग ने सर्व प्रथम सन् 1960 में प्रद्युम्नचरित साहित्यिक तत्व विद्यमान नहीं है। रामचन्द्र शुक्ल एवं सन् 1966 में जिन दत्तचरित का प्रकाशन की इस एक पंक्ति से जैन विद्वानों द्वारा निर्मित कराकर इस क्षेत्र में पहल की। प्रद्युम्न चरित हिन्दी साहित्य को राष्ट्रीय धारा में समाहित होने के प्रकाशन में हिन्दी जगत ने उसके महत्व को के दरवाजे बन्द हो गये और उसे आज तक भी स्वीकार किया और सूरपूर्व ब्रज भाषा का उसे राष्ट्रीय साहित्य में सम्मिलित नहीं किया जा प्रथम काव्य स्वीकार किया गया तथा डा. वासुदेव सका है। सिंह ने अपने शोध प्रबन्ध में उस पर विस्तृत ( 3/35 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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