SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 63. मूफियों की इश्कमजाजी तथा जैनों की 'प्रतिभक्ति' दोनों समान हैं -- इत्थं भवन्तमतिभक्तिपथथं निनीषोः, प्रागेव बन्धकलयः प्रलयं व्रजन्ति ( आदि पु० 44 / 362) | 64. द्र० समयसार - 11वीं गाथा पर श्रात्मख्याति टीका । 65. सुनतहि राजा गा मुरछाई । जानो लहरि सुरुज के भाई ( पद्मावत - प्रेमखण्ड, दो० 1 ) 66. सन् चिन्मात्रे महसि विशदे मूच्छितचेतनोऽयम्, स्थास्यत्युद्यत्सहज-महिमा सर्वदा मुक्त एवं ( प्रवचनसार, अमृतचन्द्र कृत तत्त्वदीपिका गाथा - 2 / 34 पर ) । 57. सह की सार सुहागिन जाने, तजि अभिमानु सुख रलीना मानं । । प्रभाषै ।। ( सन्न रविदास ) सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्याप तन-मन देह न अन्तर राखे, श्रवरा देखि न सुनै तुलना - " रैदास कहै जाके हृदै, रहै रंन दिन राम । काम । " (सन्त रैदास) । 68. द्र० पदमावत (चितौर श्रागमन खण्ड, तीसरी चौपाई ) । 69. स्वच्छस्वच्छन्दोछदमन्दान्त ज्योतिष ( समयसार - 270 पर श्रात्मख्याति | संज्ञानिजीवस्य शान्त रसे स्वामित्वम्, अज्ञानिनस्तु शृंगाराधष्टरसानां स्वामित्वम् ( समयसार - 242 - 46 पर तात्पर्भवृत्ति ) | श्रानन्दामृतनित्य भोजि सहजावस्थायां स्फुटुं नाटयद निरूपविज्ञान समुन्मज्जति (समयसार कलश - 163) प्रवचनसार 1 /78 पर तत्वदीपिका, रयणसार 140, ज्ञानार्णव 1559, समाधिशतक - 52, तुलना - वहि: (सर्वसमारम्भा अन्तः सर्वार्थशीतला ) ( योगवाशिष्ठ - 6 / 985) । शुभाशुभकर्म मोक्षकारणं न भवति इति मत्वा हेयं त्याज्यम् (समयसार - 161--163 पर तात्पर्यवृत्ति) । ( द्र० समयसार गाथा 270, 276-77 तथा उन पर तात्पर्यवृत्ति टीका ) । तुलना - " नाम एक त्रिभुवन आधार । प्रावे पवन पदमसर होय । ग्रीष्म तपन निवार सोय ।" ( कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा, 8वां पद्य, बनारसी - विलास ) । 70. नवो खण्ड नव पोरी, नौ तहं बज्र केवार । चारि बसेरे सौ चढे, संत सौ उतरे पार ॥ ( पद्मावत, 2, 17 ) । 71. सूफी दर्शन में चार बसेरे इस प्रकार हैं - ( 1 ) झालमे नासूत, ( 2 ) घालमे मलकृत, ( 3 ) श्रालमे जबख्त, और (4) श्रालमे लाहूत । ये क्रमशः भौतिक जगत्, श्रात्म जगत्, श्रानन्दमय जगत् तथा सत्य जगत् के प्रतीक है । 72. यद्यपि प्रथम गुणस्थान से सीधे चौथे में जाना होता है, किन्तु वहां कषायोदय हो ( वहां का काल समाप्त होने में 6 आवली शेष रहे तो ) नीचे गिर कर द्वितीय गुणस्थान में आना होता है। 73. दर्शनप्रामृत - 21, भावप्राभृत 147, 74. वीतरागसम्यक्त्वे जाते साक्षादबन्धको भवति ( समयसार -- 166 पर तात्पर्यवृत्ति) । श्रध्यात्म क्षेत्र में इसे “शुद्धात्मभावना" कहते हैं ( समयसार 145 पर तात्पर्यवृत्ति) | 75. और कुण्ड एक मोतीचूर । पानी प्रमृत, कीच कपूर । श्रोहिक पानि राजा पं पीया । विद्या होह नहिं जो लहि जीया ॥ ( पद्मावत - 2 19 ) । Jain Education International ( 3/30 ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy