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________________ असद्भूत व्यवहारनय वस्तुधर्म का प्रतिपादक डॉ० रतनचन्द्र जैन निश्चय व्यवहार दृष्टियों को लेकर वर्तमान में खूब चर्चा मंथन चला है । लेकिन तब भी अधिकतर यह विषय प्रस्पष्ट है । डा० जैन ने जहां पर सापेक्ष विकारी परिणमन को तद्गुरणारोपी उपचार कहकर वस्तु के अपने ही गुणों को व्यवहार में डाल दिया है वहां ही प्रतद्गुरणारोपी निमित्त नैमितिक सम्बन्धाधीन उपचार को भी नयाभास न कहकर लक्षरण द्वारा वस्तु के वास्त विक धर्म का ही कथन करने वाला माना है । हां, यदि लक्षणा रूप कोई उसे न समझ अभिधारूप समझले तो नयाभास ही है । लेख वस्तुतः मनन करने योग्य है । निश्चय व्यवहार को भली प्रकार समझे बिना सम्यग्दर्शन का उधाड़ सम्भव नहीं है । -सम्पादक श्रागम में किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का आरोप करने को उपचार या असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । जैसे 'यह बालक सिंह है' इस कथन में बालक पर सिंह के धर्म का श्रारोप किया गया है | अतः यह कथन उपचार या असद्भूत व्यवहारनय है । किन्तु जैन अध्यात्म में 'अन्य वस्तु का धर्म' व्यापक अर्थ रखता है । उसकी व्यापकता में न जाकर और उसका सीमित अर्थ लेकर कुछ विद्वान् यह प्रतिपादित करते हैं कि सद्भुत व्यवहारनय किसी भी तरह वस्तु के वास्तविक धर्म का निरूपण नहीं करता, अपितु जिस धर्म का उसमें सर्वथा अभाव है उसका उसमें कथन करता है । किन्तु यह मत समीचीन नहीं है । असद्भूत व्यवहारनय भी वस्तु के वास्तविक धर्म का ही कथन करता है । यह निम्नलिखित विवेचन से स्पष्ट हो जाता है । . किसी वस्तु पर अन्य वस्तु के धर्म का श्रारोप Jain Education International करना उपचार या असद्भूत व्यवहारनय है, किन्तु जैसा कि ऊपर कहा गया है, जैन अध्यात्म में अन्य वस्तु का धर्म व्यापक अर्थ रखता है । उसमें अन्य वस्तु के धर्म को तो अन्य वस्तु का धर्म कहते ही हैं, वस्तु का अपना परसापेक्ष ( पर द्रव्य के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध रखने वाला) धर्म भी अन्य वस्तु का धर्म या पर धर्म कहलाता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में जीव के शरीरगत वर्णादि धर्मो से लेकर गुणस्थानपर्यन्त भावों को, जिनमें रागादि अशुद्धभाव तथा वीतरागत्वादि शुद्धभाव समाविष्ट हैं, परधर्म अर्थात् अन्य वस्तु पुद्गल का धर्म कहा है, क्योंकि ये पुद्गल कर्म निमित्तक हैं । निम्नलिखित गाथाओं से यह बात स्पष्ट होती है— जीवस्स सात्थि रागो रवि दोसो व विज्जदे मोहो रंगो पच्चया र कम्मं गोकम्मं चावि सेरात्थि 1151 319 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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