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________________ 'अपूर्ण रत्नत्रय धर्म को धारण करने वाले पुरुष के जो कर्मबन्ध होता है वह विपक्षी रागकृत है, रत्नत्रयकृत नहीं है । अतः वह परम्परया अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, कर्मबन्धन का उपाय नहीं है।' - इस तरह वे विद्वान् पुण्यबन्ध को परम्परा से मोक्ष का कारण सिद्ध करते हैं किन्तु यह कथन अत्यन्त भ्रमपूर्ण है । यदि अमृतचन्द्रजी का ऐसा अभिप्राय होता तो सबसे प्रथम तो वे 'कर्मबन्धों' के स्थान में 'पुण्यबन्धों का प्रयोग कर सकते थे । किन्तु उन्होंने 'कर्मबन्धों पद रखा है। दूसरे उसे वह रत्नत्रयकृत न मानकर उसके विपक्षी रागद्वेष कृत मानते हैं। रागद्वेष से होने वाला कर्मबन्ध यदि अवश्य ही मोक्ष का उपाय हो तो फिर उसे नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। असल में श्लोक का चतुर्थ अन्तिम चरण अलग है। कर्मबन्ध रत्नत्रय कृत क्यों नहीं है उनके विपक्षी रागादिकृत ही क्यों है ? इस शंका का समाधान अन्तिम चरण में है - जो मोक्ष का उपाय होता है वह बन्धन का उपाय नहीं होता। अतः रत्नत्रय मोक्ष का उपाय है अत: वह कर्मबन्धन का उपाय नहीं है और इसलिये एक देश रत्नत्रय का पालन करते हुए जो कर्मबन्ध होता है वह अवश्य ही विपक्षी रागादिकृत है । Jain Education International आगे के श्लोकों में भी अमृतचन्द्रजी अपने इसी कथन की पुष्टि में युक्तियां देते हुए लिखते हैं 3/8 जितने अंश में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान श्रौर सम्यक्चारित्र हैं उतने अंश में बन्ध नहीं है, जितने अंश में राग है उतने अंश में बन्ध हैं। आत्मा के विनिश्चय का नाम सम्यग्दर्शन है, श्रात्मा के परिज्ञान का नाम सम्यग्ज्ञान है और श्रात्मा में स्थिति का नाम चारित्र है, इनसे बन्ध कैसे हो सकता है ? मागे कहते हैं रत्नत्रय तो निर्वाण का ही कारण है, बन्ध का नहीं। किन्तु उसका एक देशपालन करते हुए जो पुण्य कर्म का प्राश्रव होता है वह शुभोपयोग का अपराध है - दोष है ।।22011 जो ग्रन्थकार कहता है वह उसे कह सकता है । Y इस प्रकार अमृतचन्द्रजी के इस श्रावकाचार में भी उनके अध्यात्म की स्पष्ट छाप है और इस तरह यह श्रावकाचार अन्य भावकाचारों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । अध्यात्म प्रेमी श्रावकों को इसका सतत स्वाध्याय करना चाहिये । इसके प्रारम्भिक 15 और अन्तिम 15 श्लोक तो नित्य पाठ पूर्वक अनुचिन्तन करने लायक हैं। पुण्यबन्ध को अपराध शब्द से अवश्य ही मोक्ष का उपाय कैसे For Private & Personal Use Only स्याद्वाद महाविद्यालय, भर्दनी, वाराणसी www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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