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________________ अमृतचन्द्र की देन समाज के शीर्ष विद्वान् श्री कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है। आचार्य अमृतचन्द्र के मन्तब्य का निर्भ्रान्त लेख के अन्त में प्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धि अध्यात्म प्रेमियों को प्रेरणा दी गई है। अमृतचन्द्र केवल टीककार ही नहीं है, ग्रन्थकार भी हैं। उनका पुरुषार्थ सिद्ध पाव धीर तत्वार्थसार प्रतिप्रसिद्ध है । उनका एक नवीन ग्रन्थ लघु तत्व स्फोट कुछ समय पूर्व ही प्रकाश में आया है । यहां उनके पुरुषार्थ सिद्धयपाय को लेकर जिन शासन को उनकी देन का विवेचन किया जाता है पुरुषार्थ सिद्धयुपाय - सबसे प्रथम हम उनके पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक श्रावकाचार को लेते हैं। कालक्रम की दृष्टि से रत्नकरण्ड श्रावकाचार के पश्चात् ही इसका स्थान प्राता है। शेष सब श्रावकाचार उसके बाद के हैं । किन्तु हमें रत्नकरण्ड का उस पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता । सबसे प्रथम तो इसका नाम ही अपनी विशेषता को लिये हुए है | श्रावकाचार का नाम पुरुषार्थ सिद्धि उपाय कम से कम प्राज के अध्यात्म की दृष्टि से तो विचित्र ही लगता है। उसकी दृष्टि में तो पुरुषार्थं की सिद्धि का उपाय मात्र श्रात्मचितन है, आवक का व्रतादिरूप प्राचार नहीं, वह तो बन्ध का कारण है । Jain Education International बोध उपाय केलाशचन्द्र शास्त्री प्रस्तुत लेख पढ़कर हमें । प्राण है, प्राप्त हो सकेगा । ग्रन्थ के सतत स्वाध्याय की -संपादक | ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्होंने परमागम के बीजभूत अनेकान्त को नमस्कार किया है और अन्त में जैनी नीति की जयकामना की है जो वस्तुतत्व की नयों की गौणता और मुख्यता से विवेचना करती है। प्राचार्य समन्तभद्र और उनके व्याख्याता अकलंक देव, विद्यानन्द आदि महान दार्शनिकों ने अनेकांत, स्वाद्वाद और सप्तभंगी का विवेचन बड़े विस्तार से अपने ग्रन्थों में किया है किन्तु निश्चय धौर व्यवहार नय को प्राधार बनाकर अनेकान्त दृष्टि का विवेचन प्राचार्य अमृतचन्द्र की टीकाओं में ही परिलक्षित होता है। यहां भी वे कहते हैं कि व्यवहार और निश्चय को जानने वाले ही जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। जो केवल व्यवहार को ही जानता है वह तो उपदेश का भी पात्र नहीं है । किन्तु जो व्यवहार श्रौर निश्चय को जानकर मध्यस्थ रहता है, वही देशना के सम्पूर्ण फल को प्राप्त करता है । इस प्रकार व्यवहार धौर निश्चय के विवेचन के द्वारा भूमिका बांधने के बाद ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए कहा है-रूप रस गन्ध स्पर्श से रहित, गुण पर्याय से युक्त, उत्पाद व्यय धौव्यात्मक, अमृतचन्दजी मनेकान्त के बड़े भक्त हैं। इस 315 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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