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________________ 'महामुनि' नाम के स्थान पर 'पद्मनन्दी' नाम इसी सन्दर्भ का पूनरुल्लेख शुभचन्द्र की भी प्रचलित हैं। प्रसिद्ध 'तत्वार्थसूत्र के रचयिता 'गुर्वावलि' के अन्त में निबद्ध दो पद्यों में भी प्राप्त तथा कुन्दकुन्द के समकालीन शिष्य उमास्वामी को होता है । भी 'गृद्धपिच्छाचार्य' कहा गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के और तीन नाम तो उतने प्रचलित नहीं पद्मनन्दी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ।। हुए, किन्तु पद्मनन्दी और कुन्दकुन्द नामों की उज्जयन्तगिरी तेन गच्छः सारस्वतोऽभवत् । मावृत्ति प्रायः मिलती हैं। अतस्तस्मै मुनीन्द्रायनमः श्रीपद्मनन्दिने ।। । प्राचार्य कुन्दकुन्द अपने उक्त दोनों आकाशचारी शिष्यों के प्राग्रह पर एक सप्ताह तक विदेह अर्थात् बलात्कारगरणाग्रणी पद्मनन्दी गुरु ने ऊर्जयन्त गिरि पर पाषाणनिर्मित सरस्वती की क्षेत्र में रहे और सीमन्धरस्वामी के सान्निध्य में मति को बोलने के लिए विवश कर दिया। उसी पागम ग्रन्थों के स्वाध्याय के क्रम में उत्पन्न अपनी से दिगम्बरों की 'सारस्वत गच्छ' शाखा का उद्शंकाओं का समाधान किया। वहाँ से भरत क्षेत्र में लौटते समय वे अनेक तन्त्रग्रन्थ भी अपने साथ भव हुआ। अत: उन पद्मनन्दी मुनिवर को नमस्कार है। "ला रहे थे, किन्तु वे सभी ग्रन्थ लवरणसमुद्र में गिरकर नष्ट हो गये । आचार्य कन्दकन्द भरत-क्षेत्र कवि वृन्दावन के उल्लेख से भी ज्ञात होता में लौटकर धार्मिक उपदेश देने लगे। उनके सहस्रों है कि कुन्दकुन्द स्वामी संघ सहित गिरिनार की अनुयायी हो गये। एक बार गिरनार पर्वत पर यात्रा पर गये । वहाँ उन दिनों श्घेताम्बर संघ भी श्वेताम्बरों के साथ उनका विवाद हो गया। किन्तु ठहरा हया था। दोनों संघों में वाद-विवाद हया, उन्होंने वहाँ की प्रसिद्ध श्वेताम्बरी देवी ब्राह्मणी जिसकी मध्यस्थता पाषाण देवी अम्बिका ने की। के मुख से कहलवा दिया कि 'दिगम्बर निग्रन्थ उस देवी ने साक्षात् प्रकट होकर कहा कि 'दिगम्बर मार्ग ही सच्चा है।' कहते हैं, अन्त में उन्होंने निग्रन्थ पन्थ ही सच्चा है।' अपना प्राचार्य-पद उमास्वामी को सौंप कर समाधि मरण अगीकार किया। इन सब अभिप्रायों से इतना तो सत्य है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रबल-प्रखर शास्त्रार्थ विद्वान थे। ब्राह्मी देवीवाली घटना का पुनराख्यान भी यहाँ तक कि उन्हें शास्त्रार्थियों में 'बलात्कारगणाउपलब्ध होता है। दिगम्बर श्वेताम्बर विवाद में ग्रणी' तक कहा गया । पुण्यश्लोक डॉ. आदिनाथ प्राचार्य कुन्दकुन्द की विजय प्राप्ति के सन्दर्भ में नेमीनाथ उपाध्ये ने 'प्रवचनसार' की प्रस्तावना शुभचन्द्राचार्य के 'पाण्डवपुराण' में उल्लेख है कि में अपने महार्ध विचारों का पल्लवन करते हुए ऊर्जयन्त गिरि पर कुन्दकुन्द गरणी की ऋद्धि-साधना कहा है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर-श्वेताम्बर के प्रभाव से पाषाण-निर्मित सरस्वती या ब्राह्मी संघभेद उत्पन्न होने के बाद ही हुए हैं। यदि वे देवी की प्रतिमा मुखर हो उठी थी। पहले हुए होते, तो अचेलकत्व का समर्थन और कुन्दकुन्दगणी येनोर्जयन्त गिरिमस्तके ॥ स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं करते, क्योंकि संघभेद सोऽवताद् वादिता ब्राह्मी पाषाणघटिता कलौ ।। की उत्पत्ति चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालीन श्रतकेवली (पाण्डव पुराण) भद्रबाहु, जो कुन्दकुन्द के गुरु भी माने जाते हैं, 1. द्र० पाण्मासिक 'जैनसिद्धान्तभास्कर' (पारा, बिहार 1, किरण 4 । 3/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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