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________________ का 8 वां आश्चर्य माना गया है) भगवान बाहुबलि की विशालता देख अपनी गलती स्वीकार करते का सहस्रवि समारोह कर्नाटक राज्य के पूर्ण सहयोग है । जैनधर्म में पृथ्वी, जलादि की तरह पेड से विशाल पैमाने पर महामस्ताभिषेक मनाया गया पौधों को भी वनस्पतिकायिक जीव माना गया है । ये तीर्थकर ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र थे। इसमें है। लेकिन उनकी ज्ञान चेतना बहत ही अविकबीस लाख से भी अधिक श्रद्धालु भक्त सम्मिलित हुए सित है । इसीसे उसे अन्य सब जड़ ही हैं । समारोह का उद्घाटन भारत देश की प्रधानमन्त्री मानते थे । किन्तु वैज्ञानिक परम प्रबुद्ध प्रो. श्रीमरी इन्दिरा जी ने किया है । यह समारोह भी वसु ने पेड़ों में होने वाली प्रक्रिया प्रत्यक्ष अपने आप में अभूतपूर्व और ऐतिहासिक ही हुआ दिखाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि पेड़ है। इस समारोह में हजारों अजन बन्धु भी सहर्ष पौधों में जीवत्व है। और उनमें हर्ष विक्षाद सम्मिलित होकर श्रद्धा के सुमन समर्पित किये। का अनुक पन होता है । रात्रि भोजन करने ये सब बातें जैनधर्म के प्रति आस्था के प्रतीक और जल अनछना पीने का निषेध जैनधर्म में है । ये दोनों चीजे जहां अधर्म है वहां अब पाइये, हम अपने खुद के प्रति और अपने स्वास्थ्य के लिये भी महान हानिकर हैं तथा जैन भाइयों का भी लेखा जोखा लें कि हम ऐसे अनेक अधिव्याधियों के जनक है। इस बात परम पावन धर्म के सिद्धान्तों के प्रति कितने को अनेक प्रबुद्ध वैज्ञानिकों से डाक्टर वैद्यों आस्थावान हैं ? से धर्माचारियों ने अनेक तर्क देते हुए प्रत्यक्ष दिखाकर सही मान लिया है । किन्तु कुछ हमें सौभाग्य से ऐसी दिव्य ज्योति प्राप्त हुई बन्धु अब भी इनका उपयोग कर रहे हैं और है, जिसके प्रकाश में हम अपने को भी देख सके हैं अपने को प्रगतिशील मान रहे है । मद्य, मांस और दूसरों को भी दिशा बोध दे सके हैं। यह का सेवन, अभक्ष्य, अनिष्टकर एवं अनुपसेव्य सब तभी संभव है जब उस दिव्य ज्योति से सर्व- कंदमूलादि का भक्षण-करना, हिंसक, प्रमादकर्ता, प्रथम हम स्वयं आलोकित हो । आज थोडे अक्षर ऋरता जनक है, वहां अस्वास्थ्कर भी है। ज्ञानी होने पर या किसी भाषा या विषय के पढ़ने इसीलिए जैनवाङ्गमय में जैन संस्कारों के सृजन या डिग्री ले लेने मात्र से ज्ञानी या पंडित नहीं हो में सहायक अष्ठमूल गुण बच्चों को 8 वर्ष सकते है। किन्तु वे अपने सीमित ज्ञान के मद में की आयु में ही धारण कर दिये जाते थे ताकि सभी विषयों के पारगामी अपने को समझ लेते वे संस्कार निरंतर ही बुद्धिगत होते रहे और है। उन्हें पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञदेव के कहे हुए वचनों में आदर्श जीवन के निर्माण में सहायक बन अप्रमाणिकता दीखती है और भगवान के द्वारा सकें । जैनों को प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों से प्रतिपादित प्रमाणों को भी अप्रमाणिक ठहराने की संस्कारित करने की प्रक्रियाए वनाई जाती चेष्टा करते है। याने अपने अल्प ज्ञान को उस रही है ताकि उनका प्राचार, विचार, और दिव्य परिपूर्ण केवल ज्ञान से तोलते है. जैसे बोना आहार शुद्ध. सात्विक एवं संयमित रहे और आदमी अाकाश को छुने का प्रयत्न करे। उनका जीवन पवित्र और प्रादर्श बने । मगर ये सब कहां है प्राज? पहले शास्त्रों में वरिणत 500 धनुष लम्बे शरीर के होने की प्ररुपणा पढ़ कह गप्प समझते थे। प्राचार और विचारों में पवित्रता लाने और किन्तु वर्तमान में प्राप्त शरीर के अस्थि कंकालों प्रात्मबोध कराने में हमें नित्य प्रायः सायं जिन 2/43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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