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________________ 2. स्त्र (!) मिस महक्षत्रपस शोडासस संवत्सरे राम के हाथ में चषक और मस्तक पर नाग फण 40 (1) 2 हेमन्तमासे 2 दिवसे 9 हरिति- है। इसमें श्रीकृष्ण को चर्तुभुज बना विष्णु का पुत्रस पालस मयाये समसाविबाये। अवतार और बलराम के मस्तक पर नाग फण उनके शेष नाग के अवतार को स्मरण दिलाने 3. कोछिये अमोहिनि ये सहा पुत्रेहि पालघोषेन वाला दिखलाया है। अन्य प्रतिमाओं में बलराम पोठ घोषेन, धन घोषेन, प्रायवती प्रतियापिता और कृष्ण द्विमुखी है। . प्राय (म) यहां से यक्ष यक्षी की भी अनेक मूर्तियां मिली हैं । ये सभी कुषाणकालीन है। इसमें एक नेगमेश 4. आर्यवती अरहर पूजाये । की है, जो बच्चों से घिरा है। देवी रेवती की (जैन शिलालेख भाग 2 पृ. 12)। प्रतिमा का मख भी बकरे का है, इस यक्षी का उपरोक्त दो पायागपट्टों के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध भी बच्चों से ही है। तीसरी मूर्ति जैन देवी सरस्वती की है। यह इस समय लखनऊ भक्तों ने भी आयागपट्ट स्थापित कराकर पुण्य लाभ लिया है । गौती पुत्र की पत्नी कौशिक कुलोद्भूत पुरातत्व संग्रहालय की धरोहर है । यह भी कंकाली टीले से ही प्राप्त है। सम्भवतः संसार की यह शिवमित्रा, फल्गुयश नर्तक की पत्नी शिवयशा, प्रथम सरस्वती देवी की प्रतिमा है । वैदिक सरस्मथुरा निवासी लवाड़ की पत्नी, कोशिकी पुत्र वती देवी की प्रतिमा 5-6 ई. से पूर्व की एक भी सिंह नन्दिक, भद्र नन्दी की पत्नी अचला, ओर त्रैवणिक नन्दी घोष ने भी पायागपट्ट स्थापित नहीं है । अन्य मूर्तियों में अम्बिका, चक्रेश्वरी प्रादि यक्षियों की हैं। कराया था। कंकाली टीले से प्राप्त जैन प्रतिमाओं के पाषाण की दो सर्वतोमद्र प्रतिमा यहां से प्राप्त विषय में अभी तक यह निर्णय नहीं हो पाया है कि हुई हैं-ये दोनों ही कुषाणकाल की है। एक के उनमें कितनी कुषाण-कालीन है और कितनी लेख के अनुसार मुनि जयभूति की प्रशिष्या 'वसूला कुषाण काल के पूर्व की है । किन्तु प्रासादों के की प्रेरणा से वेणीनामक सेठ की पत्नी 'कुमार- तोरणों के उपान्त भागों के टूटे खण्ड अवश्य ही मिता' द्वारा दान हुई है, और दूसरी सर्प फण शुग कालीन ज्ञात होते है। संयक्त 23 वे ती. श्री पार्श्वनाथ की है । इसे यहां एक विचारणीय बात यह है कि-मथरा स्थिरा नामक महिला ने दान किया था। मथुरा में में पायागपट्ट, प्रतिमाएं, शिलास्तम्भ आदि स्थापुरातत्व संग्रहालय में एक शिलापट्ट पर प्रादि पित कराने वालों में सभी वर्ग (जाति, अथवा तीर्थकर भगवान श्री ऋषभदेव की प्रकित प्रतिमा व्यवसाई) लोग सम्मिलित थे। उनमें उच्चवर्ण के कुषाण नरेश शाही वासुदेव (138-196 ई.) के अतिरिक्त गणिका, नर्तक, लुहार, सार्थवाह गन्धी राज्य के 24 वे वर्ष में एक मठ में विराजमान की पूजारी सुनार घाटी (नाविक) आदि सभी जाति गई थी। वाले थे । ऐसा अनुमान होता है कि शक कुषाण काल से गुप्त काल और उसके बाद के काल तक मथरा से बाइसवे तीर्थकर श्री नेमिनाथ की। मथरा में जैन धर्म जन साधारण तक फैला था। प्रतिमाएं भी मिली हैं, जिनमें भगवान नेमिनाथ के यह तथ्य वहां से उपलब्ध अभिलेखों से सिद्ध होता अगल बगल श्री कृष्ण और बलराम की मूर्तियां है। उत्कीर्ण हैं । एक में श्री कृष्ण चतुभुजी और बल 2139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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