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________________ अर्थात् वर्ष 79 की वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास के बीसवें (20) दिन कोट्टिगण की वैर शाखा के आचार्य वृद्धहस्ति ने अर्हत् नन्द्यावर्त की प्रतिमा का निर्माण कराया, और उन्हीं के प्रदेश से भार्या श्राविका “दिना" द्वारा यह प्रतिमा देव निर्मित बोद्ध स्तूप में दान स्वरूप प्रतिष्ठापित हुई । (कुछ विद्वान इसे नद्यावर्तक स्थान पर मुनिसुव्रत पढ़ते हैं जो अधिक संगत लगता है) । ( जैन- शिल्प लेख-संग्रह, भाग 2 पु० 42 ) । बोद्ध-स्तूप के वारे में लिखा है - ' थूपेदेव निर्मिते" अर्थात् यह स्तूप मनुष्यों द्वारा नहीं, श्रपितु देवों द्वारा निर्मित हुआ है । पुरातत्त्वविद विन्सेण्ट स्मिथ का विश्वास है कि यह स्तूप निश्चित रूप से भारतवर्ष के ज्ञात स्तूपों में सर्व प्राचीन है। इस स्तूप के इतिहास और काल निर्णय के लिए, जैन - साहित्य और इतिहास एवं पुरातत्त्व के मर्मज्ञ 14 वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने "विविध तीर्थ कल्प" नामक अपनी रचना में 'मथुरा - कल्प' लिखा | कल्प में स्तूप के विषय में वर्णन है । 7 वे तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ तीर्थ काल में धर्मरुचि और धर्मघोष दो मुनि विहार करते हुए मथुरा पधारे। भूतरमण बन में वर्षा (चातुर्मास ) योग धारण कर कठिन तपस्यायें करने लगे । उनकी तपस्याओं से प्रभावित उस बन की यक्षी (देवी) कुबेरा ने उनके चरणों में उपस्थित हो उनकी बन्दना की और कहा -- मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कठिन तपस्याओं की आराधना से प्रभावित हो मैं आपको वरदान देने के लिए उपस्थित हुई हूं । मुनिराजों ने कहा --: "हम निर्ग्रन्थ हैं, हमें कुछ भी नहीं चाहिये ।" तभी कुबेरा ने अपनी भक्ति प्रगट करने के लिये रात्रि के पिछले प्रहर में स्वर्ण-पत्रों के वेष्ठन पर रत्न जड़ित उक्त स्तूप का निर्माण किया । तोरणमालानों से अलंकृत, शिखर पर तीन छत्रों से शोभित, चारों दिशाओं में पंचवर्ण रत्नों से निर्मित जैन प्रतिमायें विराजित, तथा Jain Education International मूलनायक 7 वें तीर्थंकर श्रीं सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा सहित इस स्तूप की स्थापना यक्षी कुबेरा ने की। दोनों मुनियों को उसी भूमि पर निर्वाण प्राप्त हो गया । 23 वें तीर्थंकर भगवान श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ में मथुरा के राजा ने प्रादेश दिया कि स्तूप का स्वर्ण-पत्र और उसमें जड़ रत्न स्तूप को ध्वस्त कर के राज- खजाने में जमा किया जाय । सैनिक स्तूप तोड़ने के लिये उस पर घात करने लगे । धात का असर स्तूप पर न होकर सैनिकों के शरीर पर होता था । वे त्रस्त हो गये। तभी उन्होंने सुना यक्ष ने घोषित किया । दुष्टों ! राजा और तुम सब प्रधम पापी हो, तुम सब इस पापकृत्य से तो मरोगे ही तुम्हारा पूरा परिवार भी समाप्त हो जायेगा । राजा भी परिवार सहित नष्ट होगा । वही बचेगा जिसे जैन-धर्म में, जिन विम्वों में अचल-श्रद्धा होगी, राजा और प्रजा जैन-धर्म की अनुगामी हुई । ने भगवान पार्श्व का समवसरण 'मथुरा' पधारा, तीर्थंकर का उपदेश हुआ । पश्चात् भगवान ने कहा- दुःषमाकाल आने वाला है, इस काल में राजा प्रजा सभी लोभी होंगे; उनमें धमं प्रवृत्ति कम होगी । यक्ष स्तूप के रत्नों ओर स्वर्ण-पत्र की रक्षा के लिये उसने स्तूप को चारों ओर से ईटों की भीत ढक दिया। मुख्य स्तूप के बाहर एक पाषाण से निर्मित जैन मन्दिर का निर्माण हुआ। 24 वें तीर्थंकर महावोर के निर्धारण हो जाने के 1300 वर्ष पश्चात् वप्पभहसूरी ने 8 वीं शताब्दी में इस स्तूप का जीर्णोद्धार कराया । कूप श्रौर कोट बनवाया । भींत की सरक रही थीं, उन्हें हटा कर पाषाण खण्डों में नई चार दीवारी का निर्माण कराया । जिनप्रभसूरि के इस वर्णन से इतना तो निर्णीत होता ही है कि सूरिजी के काल तक एक प्राचीनतम् स्तूप मथुरा में स्थित था । 2/36 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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